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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. ३. सू. १० आयुष्यकर्मणो मेदनिरूपणम् ३८७ आयुष्पदव्युत्पत्तिस्तु-आनियन्ते शेषप्रकृतयः उपभोगाय जीवेन यस्मिन् तदायुः, कांस्यपात्राधारे भोक्तुरेव परिभोगाय शाल्पोदनादि व्यञ्जनविकल्पाः कल्पन्ते। यद्वा-ऽऽनीयते तद्भवान्तर्भावी प्रकृतिगणोऽनेनेत्यायुः, रज्जुबढेक्षुयष्टिभारवत् । अथवा-शरीरधारणं प्रतिबन्ध आयतते इत्यायुर्निगडादिवत्. पृषोदरादित्वात्सिद्धिः । आयुरेवाऽऽयुष्कम्, तच्चतुर्विधम्-संसारस्य चतुर्गतिकत्वात्, तत्र-नरकाः पृथिवीपरिणतिविशेषा --उत्पत्ति-यातनास्थानरूपाः तत्सम्बन्धिनः -प्राणिनोऽपि नरकास्तास्थ्याव्यपदिश्यन्ते, तेषामिदमायु रकमुच्यते । तिर्यग्योनय एक--द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियाः तेषामिदं तैर्यग्योनयम्, । मनुष्या-सम्मूछिमाः, गर्भजाश्च, तेषामिदं मानुषम्, । देवानां भवनपति-वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानामिदं दैवमुच्यते, इत्येवं तावद् आयुष्यस्य मूलप्रकृतिबन्धस्य कर्मणः उत्तरप्रकृतिकर्मचतुर्विधं सम्पन्नम् ॥ १० मूलसूत्रम् -- “णामे बायालीसविहे, गइ-जाइ-सरीराइ भेयओ-" ॥११॥ छाया-"नाम-द्विचत्वारिंशद्विधम्, गति-जाति-शरीरादिभेदतः-" ॥११॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे पञ्चमस्या--ऽऽयुष्यकर्मणश्चतस्र उत्तरप्रकृतयः प्रतिपादिताः, प्रकार हैं-आनीयन्ते अर्थात् लाई जाती हैं शेष कृतियाँ उपभोग के लिए जीव के द्वारा जिसमें उसे 'आयु' कहते हैं। कांसे के पात्र रूप आधार में भोजन करने वाले के लिए ही शालि (चावल) और ओदन आदि विविध प्रकार के व्यंजन रक्खे जाते हैं अथवा आनीयन्ते अर्थात् लाई जाती हैं उस भव के अन्दर होने वाली प्रकृतियाँ जिसके द्वारा, उसे आयु कहते हैं; रस्से से बँधे हुए ईख ईक्षु के भारे के समान । तात्पर्य यह है कि जैसे रस्सा ईखों को इकट्ठा रखना है, उसी प्रकार आयुष्यकर्म अमुक भव संबन्धी समस्त प्रकृतियों को इकट्ठा कर रखता है । अथवा निगड़ (वेडी) आदि के समान शरीर धारण के प्रति जो यत्नशील होता है, वह आयु कहलाता है। आयु को ही आयुष्क कहते हैं। आयु चार प्रकार का है क्योंकि संसार चार गति रूप है। नरक पृथ्वी का एक विशेष प्रकार का परिणमन है । नरक वे यातनाओं के स्थान हैं। नरक में रहने वाले प्राणी भी नरक कहलाते हैं; नरक संबंधी (आयु) को नारक कहते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की आयु को तैर्यग्योनिक कहते हैं। सम्मूर्छिम और गर्भज मनुष्यों की आयु को मानुषायु कहते हैं। भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों की आयु दैवायु कही जाती है। इस प्रकार आयुष्य मूलप्रकृति की चार प्रकृतियाँ सिद्ध हुई ॥१०॥ सूत्रार्थ--"णामे बायालीसविहे गइजाइ" इत्यादि सूत्र ॥११ गति, जाति, शरीर आदि के भेद से नाम कर्म बयालीस प्रकार का है ॥११ तत्त्वार्थ दीपिका—पिछले सूत्र में पाँचवीं मूल कर्मप्रकृति आयुष्य की चार प्रकृतियाँ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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