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तत्त्वार्थसूत्रे चारित्रमोहनीयं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, कषायमोहनीयं नोकषायमोहनीयम् । तत्र-कषायवेदनीयं षोडशविधम् तद्यथा-क्रोध, मान, माया, लोभकषायाणां चतुर्णा प्रत्येकम् अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषाय-प्रत्याख्यान-कषाय-संज्वलनकषायचतुष्टयभेदेन षोडशभेदा अवसेयाः । तत्रा-ऽनन्तः संसारो नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-देवरूपचतुर्गति जन्म-जरा-मरणलक्षणस्तदनुबन्धादनन्तानुबन्धिनः संयोजनाश्च क्रोध-मान-माया-लोभः सन्ति । तत्रा-ऽप्रीतिलक्षणः क्रोधः -१गर्वलक्षणो मानः -२शाठ्यलक्षणा माया -३गार्थ्यलक्षणो लोभः -४ उक्तञ्च ---
"संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसंख्येयैर्भवैः कषायास्ते-।
संयोजनतानन्ताऽनुबन्धिता वा ऽप्यतस्तेषाम्- ॥११॥ इति, अनन्तानुबन्धिनां खलु गिरिराजिशैलस्तम्भधनवंशमूलकृमिलाक्षारागा उदाहरणानि । एवम्-अप्रत्या
इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म की तीन उत्तरप्रकृतियों का प्रतिपादन करके अब पचीस प्रकार के चारित्रमोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृति रूप बन्ध का प्रतिपादन करते हैं,
चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का है-कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । कषायमोहनी के सोलह भेद है; यथा-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेद से ४४४=१६-सोलह भेद होते हैं।
नारक, तियेच, मनुष्य और देव रूप चतुर्गति तथा जन्म, जरा, मरण रूप अनन्त संसार का अनुबन्ध करने वाला कषाय अनन्तानु बंधी कहलाता है । क्रोध, मान, माया और लोभ, इसके चार भेद होते हैं।
इनमें से क्रोध का लक्षण अप्रीति है, मान का लक्षण गर्व है, माया का लक्षण शठता (कपटता) है और लोभ का लक्षण गृद्धिआसक्ति है । कहा भी है।
जो कषाय जीव को अनन्त भवों से संयोजित करता है उसे अनन्तानुबंधी या संयोजना कषाय कहते है ॥२॥
अनन्तानुबंधी कषायों के गिरि राजी (पर्वत में पड़ी हुई दरार) शैल स्तंभ (पर्वत) वांस की जड़ और किरमिची रंग, ये चार उदाहरण हैं तात्पर्य यह है कि जैसे पर्वत की दरार कभी मिटती नहीं है, उसी प्रकार जो क्रोध जीवन पर्यन्त कभी न मिटे उसे अनन्तानुबंधी क्रोध समझना चाहिए। जैसे पत्थर कभी नमता नहीं उसी प्रकार जो मान जीवन पर्यन्त दूर न हो, वह अनन्तानुबंधी मान है । जैसे वांस की जड़ में अत्यन्त वक्रता होती है, उसी प्रकार की वक्रता अनन्तानुबंधी माया में होती है । जैसे वस्त्र में लगा हुआ किरमिची रंग अन्त तक छूटता नहीं है , उसी प्रकार जो लोभ जीवन के अन्त तक न छूटे वह अनन्तानुबंधी लोभ कहलाताहै। अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध का स्वभाव पत्थर भी लकीर=१मान का स्वभाव वज्र का स्तम्भ माया का स्वभाव वांस की जड़ लोभ का स्वभाव कृमिज रंग के समान होता है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧