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________________ ३७० __ तत्त्वार्यसूत्रे गन्तव्यम् । इति नवविधं दर्शनावरणरूपद्वितीयमूलप्रकृतिकर्मण उत्तरप्रकृतिकर्माऽवसेयम् ॥७॥ म्लसूत्रम्-"वेयणिज्जं दुविहं सायासायभेयओ-"॥८॥ छाया -- "वेदनीयं द्विविधं शाताऽशातमेदतः-" ॥ ८॥ तन्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे द्वितीयस्य दर्शनावरणरूपमूलप्रकृतिकर्मणो नवविधमुत्तरप्रकृतिकर्मप्ररूपितम् सम्प्रति वेदनीयत्वेन प्रसिद्धस्य तृतीयस्य मूलप्रकृतिकर्मणो द्विविधमुत्तरप्रकृतिकर्मप्ररूपयितुमाह "वेयणिज्जं दुविहं,सायासायभेयओ-" इति. । वेदनीयं तावत् मूलप्रकृतिकर्म उत्तरप्रकृतिकर्मत्वेन द्विविधं प्रज्ञप्तम् , शाताशातभेदतः, शातावेदनीयम्-अशातावेदनीयञ्चेति ॥८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्वसूत्रे दर्शनावरणरूपमूलप्रकृतिकर्मणो द्वितीयस्य नवविधमुत्तरप्रकृतिकर्म प्ररूपितम्, सम्प्रति–वेदनीयत्वेन प्रसिद्धतृतीयमूलप्रकृतिकर्मणो द्वैविध्यमुत्तरप्रकृतिकर्म प्ररूपयितुमाह-वेयणिज्जं दुविहं,सायासायभेयओ--" इति. । वेदनीयं खलु तृतीयं मूलप्रकृतिकर्म-उत्तरप्रकृतित्वेन द्विविधं प्रज्ञप्तम्, शातशातभेदतः सवेधम्-असवेद्यञ्चेत्येवं वेदनीयमूलप्रकृतेरुत्तरप्रकृतिद्वयं भवति. । तथा च यदुदयादुपभोक्तुः कर्तुरात्मनो मनुष्य-देवादिजन्मसु-औदारिकादिशरीरमनोद्वारेणाऽभिमतमिष्टं सुखपरिणतिरूपम् आगन्तुकविविधमनोज्ञद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसम्बन्धवशात् प्राप्तपरिपाकावस्थम् अनेकभेदं भवति तत्सद्वेदनीयमवगन्तव्यम् । तदेव सद्वेद्य-शातावेदनीयञ्चेत्युच्यते, तद्विपरीतम्-असद्वेदनीयम्-असद्वेद्यम्-अशातावेद केवलदर्शन भी सामान्य उपयोग है, इसे आवृत करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण कहलाता है । दूसरी मूल कर्मप्रकृति की यह नौ उत्तरप्रकृतियां हैं ॥७॥ सूत्रार्थ-"वेयणिज्ज दुविहं' इत्यादि ॥८॥" वेदनीय कर्म दो प्रकार का है-सातावेदनीय और असातावेदनीय ॥८॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में द्वितीय मूल कर्मप्रकृति दर्शनावरण की नौ उत्तर प्रकृतियों का निरूपण किया गया है, अब तीसरी मूलप्रकृति वेदनीय के भेदों का कथन करते हैं वेदनीय नामक तीसरी मूल कर्मप्रकृति के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय ॥८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पिछले सूत्रमें दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों का कथन किया है, अब वेदनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों का प्रतिपादन करते हैं __ वेदनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियाँ दो हैं सातावेदनीय और असातावेदनीय । जिसके उदय से आत्मा को मनुष्य और देव आदि जन्मों में औदारिक आदि शरीर तथा मन के द्वारा, आगन्तुक विविध मनोरम द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव के सम्बन्ध से अनेक प्रकार के सुख का अनुभव होता है, वह सातावेदनीय कहलाता है । उसे सातावेदनीय या सदेद्य भी कहते हैं । इससे जो विपरीत हो वह असातावेदनीय, असद्वेद्य या अशातावेदनीय कहलाता है । तात्पर्य यह है कि શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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