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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ३ सू. ३ बन्धस्य हेतुस्वरूपनिरूपणम् ३५७ दाच्चतुर्विधः इति सर्वे द्वादशयोगाः, औदारिक- वैक्रिया - ssहारकमिश्रभेदात् त्रयो योगाः, इति सर्वे पञ्चदशयोगा भवन्ति । तत्रा-ऽऽहारका-ऽनाहारकमिश्रवर्जिताः सर्वे योगाः कर्मभावबन्धहेतवो भवन्ति । तत्र - पञ्चा - नामपि बन्धहेतूनां मिथ्यादर्शनादीनां मध्ये पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् सति- अवश्यमुत्तरेषां सद्भावो भवति, यथा-मिथ्यादर्शनसत्त्वेऽविरत्यादयश्चत्वारोऽवश्यं भवन्ति, अविरतौ सत्यामप्रमादादयस्त्रयोऽपि भवन्ति, प्रमादे सति - अवश्यं कषाय- योगौ भवतः, कषायेषु सत्सु अवश्यं योगा भवन्त्येवेति भावः । किन्तु - उत्तरोत्तरभावे पूर्वेषां सद्भावो नाऽवश्यं भवति, यथा-योगे सति, नेतरे चत्वारोऽवश्यं भवन्त्येव योग- कषाययोः सतोर्नावश्यमितरे त्रयः, योग- कषाय- प्रमादेषु सत्सु नाऽवश्यमितरौ द्वौ भवत एव, अविरति प्रमाद-कषाय-योगेषु सत्सु नावश्यं मिथ्यादर्शनप्रत्ययो भवत्येवेति भावः । उक्तश्च समवयाङ्गसूत्रे;५समवाये–“पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा - मिच्छत्तं - अविर - पमाया - कसाया - जोगा - " इति । पश्चा-ssस्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मिथ्यात्वम् - अविरतिः प्रमादाः कषायाः - योगाः, इति ॥ मिथ्यात्वञ्चाविरति, र्भवति, प्रमादाः कषाया योगाः । आस्रवद्वारा एते, प्रोक्ताः समवायाने पञ्च ॥१॥ सू० ३ ॥ चार तथा औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग और आहारकमिश्र काययोग, यह तीन मिल कर सात काययोग होते हैं । सब मिल कर योग - पन्द्रह प्रकार के कहे हैं । इनमें से आहारक और आहारकमिश्र को छोड़ कर शेष सब योग कर्मभावबन्ध के कारण होते हैं । मिथ्यादर्शन आदि पाँच बन्धके कारणों में से पूर्व - पूर्व के विद्यमान होने पर उत्तर - उत्तर का सद्भाव अवश्य होता है जैसे मिथ्यादर्शन का सद्भाव होने पर अविरति आदि चारों अवश्य होते है, अविरति होने पर प्रमाद आदि तीन अवश्य होते हैं, प्रमाद होने पर कषाय और योग भी अवश्य होते हैं और कषाय के होने पर योग अवश्य होता है । किन्तु यह आवश्यक नहीं कि अगले कारण के होने पर पिछला कारण भी अवश्य हों । जैसे योग के होने पर पहले के चार कारणों का होना आवश्यक नहीं, योग और कषाय के होने पर बाकी तीन अवश्य हों ऐसा नहीं है, योग कषाय और प्रमाद की विद्यमानता में शेष दो का होना नियत नहीं है, इसी प्रकार जहाँ अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं वहाँ मिथ्यादर्श अवश्य हो ऐसा नियम नहीं हैं । समवायांग सूत्र के पाँचवें समवाय में कहा है- आस्रवद्वार पाँच कहे गए हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । समवायांगसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, यह पाँच आस्रवद्वार कहे है ॥३॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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