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तत्त्वार्थसूत्रे त्रयोदशविधाः सन्ति आहारककाययोग- आहारक'मश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयतवर्तिनो भैदेन पुनः पञ्चदशविधाः भवन्ति ।
___ एते मिथ्यादर्शनादयः पञ्च समस्ता-व्यस्ताश्च बन्धहेतवो भवन्ति । तत्र-मिथ्यादर्शिनः पञ्चापि समुदिता बन्धहेतवः, सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यगमिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टीनामविरतिप्रमादकषाययोगाश्चत्वारो बन्धहेतवो भवन्ति । संयतासंयतस्य-विरति-मिश्रा-ऽविरतिः, प्रमाद-कषाययोगाश्च बन्धहेतवः । अप्रमत्तादीनां चतुर्णी-योगकषायौ बन्धहेतू ।
उपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगिकेवलिनामेक एव योगो बन्धहेतुः अयोगिकेवलिनो न बन्धहेतुर्भवति कश्चिदिति भावः ॥३॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः–पूर्वसूत्रे कर्मभावबन्धः प्ररूपितः सम्प्रतिबन्धस्य पञ्चहेतून् प्ररूपयितुमाह-"बंधहेउणो पंच मिच्छादसणाऽविरइपमायकसायजोगा-" इति । बन्धहेतवः पञ्च, मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद--कषाय--योगा इति,
बन्धस्य-कर्मभावबन्धस्य हेतवः सामान्यहेतवो मिथ्यादर्शनादयः पञ्च सन्ति । तत्र--तत्त्वातत्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शनस्य विपरीतं मिथ्यादर्शनं तत्वार्थाश्रद्धानलक्षणं बोध्यम् । अविरतिश्च - अवद्यस्थानेभ्यो निवृत्तिलक्षणा विरतिः विपरीता पापस्थानेभ्योऽनिवृत्तिलक्षणाविरतिर्विपरीत्यभावरूपा । संयत में आहारककाय योग और आहारकमिश्र काययोग भी होते हैं । इन्हें मिलाने से योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं।
मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त पाँच मिले हुए भी कर्मबन्ध के कारण होते हैं और पृथक्पृथक भी कारण होते हैं । मिथ्यादृष्टि में पाँचों मिले हुए कारण होते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्-मिथ्या दृष्टि (मिश्रदृष्टि) असंयतसम्यग्दृष्टि में अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये चार बन्ध कारण पाये जाते हैं । संयतासंयत्त (देशविरत) में विरतिमिश्रित अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कारण होते हैं । संयतासंयत (देशबिरत) में विरति मिश्रित अविरति प्रमाद कषाय और योग कारण होते हैं । प्रमत्तसंयत में प्रमाद, कषाय और योग कारण होते हैं अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानों में योग और कषाय कारण हैं । उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोगि केवली में अकेला योग हो बन्ध का कारण होता है । अयोगि केवली में बन्ध का कोई कारण न रहने से बन्ध ही नहीं होता ॥३॥
तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में कर्मभावबन्ध का प्ररूपण किया गया है, अब बन्ध के पाँच हेतुओं का निरूपण करने के लिए कहते हैं-बन्ध के पाँच कारण हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
___ कर्मबन्ध के इन सामान्य कारणों में पहला मिथ्यादर्शन हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन से विपरीत तत्त्वार्थ का अश्रद्धान मिथ्यादर्शन कहलाता है। पापस्थानों से निवृत्ति को विरति कहते हैं, उससे जो विपरीत है अर्थात् पापस्थानोंसे निवृत्त न होता है, उसे अविरति कहते हैं । इन्द्रियों
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧