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________________ सू०१ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३४५ "अणवोऽसेत्स्यद्भ्योऽनन्तगुणाः सिद्धवदनन्ततमभागाः। एकस्कन्धीभूताः स्कन्धानां चापि मानं तत् ॥५॥ "औदारिकादिशेषद्रव्यादाने स एव विधिरुक्तः । तत्राद्यस्य स्कन्धाः सर्वेऽल्पिष्ठप्रदेशास्तु ॥६॥ "तेभ्योऽसंख्येयगुणा वैक्रिययोग्याः प्रदेशतः स्कन्धाः। आहारकस्य तेभ्योऽपि तथा स्कन्धा असंख्येयगुणाः ॥७॥ "तेभ्यः प्रभृतितथैवाऽनन्ताभ्यस्ताः प्रदेशतः स्कन्धाः। क्रमशस्तैजसभाषा द्रव्यमन:कमेणां योग्याः ॥८॥ इति ॥ तथाच-सकषायो जीवः औदारिकवैक्रिय-आहारक-तैजस-भाषा-प्राणा-ऽपान-मनः-कर्म-भेदेनाऽष्टविधेषु परमाणुद्विप्रदेशादिस्कन्धप्रभृतियावद् अचित्तमहास्कन्धपर्यन्तेषु पुद्गलेषु मध्ये ज्ञानावरणदर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीय-नाम-गोत्रा-ऽऽयुष्या-ऽन्तरायकर्मवर्गणायोग्यानेव सूक्ष्मपरिणतियोग्यान्, न तु बादरपरिणतियोग्यान् पुद्गलानादत्ते काऽऽत्मना ज्ञानावरणादिसमर्थास्ते पुद्गला आदीयमानाः ज्ञानमात्रियते येन कर्मणा तद्ज्ञानावरणं कर्म, अभव्य जीवों की राशि से अनन्तगुण और सिद्धों से अनन्तवें भाग परमाणु मिलकर एक स्कन्ध (पिण्ड) के रूप में परिणत हुए हों; यह स्कन्धों का परिमाण है ॥५॥ औदारिक आदि शेष पुद्गलद्रव्यों के ग्रहण करने की भी यही विधि कही गई है। औदारिक वर्गणा के सभी स्कन्ध अल्प प्रदेशों वाले होते हैं ॥६॥ उन औदारिक शरीर के योग्य स्कन्धों की अपेक्षा वैक्रिय शरीर के योग्य स्कन्ध प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणा अधिक होते हैं और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा आहारक शरीर के योग्य स्कन्ध प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा होते हैं ॥७॥ आहारक शरीर के योग्य स्कन्धों की अपेक्षा क्रमशः अनन्तगुणित प्रदेशों वाले स्कन्ध तैजस शरीर के योग्य होते हैं। तैजस शरीर के योग्य स्कन्धों से अनन्तगुणित प्रदेशों वाले स्कन्ध भाषा के उनसे अनन्तगुणित प्रदेशों वाले स्कन्ध प्राणापान के, उनसे अनन्त गुणित प्रदेशों वाले स्कन्ध मन के तथा उनसे भी अनन्त गुणित प्रदेशों वाले स्कन्ध कर्म के योग्य होते हैं ॥८॥ ___ कषाय युक्त जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, प्राणापान, मन और कर्मवर्गणा के भेद से आठ प्रकार के, परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि से लगाकर सर्वलोक व्यापी अचित्त महास्कन्ध पर्यन्त, पुद्गलों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय. मोहनीय नाम, गोत्र, आयु और अन्तराय कर्मवर्गणा के योग्य सूक्ष्म परिणमन वाले पुद्गलों को ही ग्रहण करता है, बादर परिणमन के योग्य पुद्गलों को नहीं । आत्मा ज्ञान के आवरण में समर्थ उन पुद्गलों को ग्रहण करता है । ४४ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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