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दीपिकानियुक्तिश्च अ २ सू. ३१
परिणामस्वरूपनिरूपणम् ३३३ स्वस्वरूपापरित्यागेनैव स्थितिकर्तुः स्थित्युपग्रहाकारेण परिणमते. । आकाशोऽपि-स्वस्वरूपमपरित्यजन्नेवाऽवगाहकतुरवगाहदायित्वेन परिणमति । कालःखल्वपि-ज्येष्ठ-कनिष्ठादीनां । परत्वापरत्वजननेन ह्यः-श्वः-समय-क्षण-निमेष-दिन-रात्रि-पक्ष–मासा-यन-वर्षादिव्यवहारकारकत्वेनोपजायते तदाकारेण.।
पुद्गला अपि-औदारिकादिशरीरादि-रूपरसगन्धस्पर्शशब्दादिरूपेण स्वस्वरूपमत्यजन्त एव परिणमन्ते । जीवोऽपि-ज्ञान-दर्शनोपयोगवृत्त्या नारक देव मनुष्य-तिर्यग्भावेन स्वस्वरूपमपरित्यजन्नेव परिणमते । एवं शुक्लादयो गुणावर्णादिसामान्यमपरित्यजन्त एव कृष्णादित्वेन परिणमन्ते. । घटपर्यायोऽपि-सामान्यं मृत्स्वभावमपरित्यजन्नेव कपालावस्थां प्राप्नोति. । एवम्-कपालादयोऽपि पर्यायाः कपालिकाशकल-स्थास कोश शरावो-दञ्चनाद्याकारेण सामान्यभूतं मृत्स्वभावमपरित्यजन्त एव परिणमन्ते ।
एवं-परमाणवोऽपि, रूप-रस-गन्ध-स्पर्शायात्मना व्यणुकादिस्कन्धात्मना स्वरूपापरित्यागपूर्वकमेव परिणता भवन्ति. ! तथाच-द्रव्याणि सर्वाणि सर्वदा सूक्ष्म-बादर भेदोत्पाद-व्ययरूपेण
धर्मास्तिकाय अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ ही गमन करने वाले के गमन में सहायक रूप से परिणत होता है। अधर्मास्तिकाय अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ स्थित होने वाले की स्थिति में सहायक रूप से परिणत होता है। आकाश भी अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ ही अवगाह करने वाले को अवगाहना देता है। काल ज्येष्ठ और कनिष्ठ आदि में परत्व और अपरत्व उत्पन्न करके गत कल, अगामी कल, समय, क्षण, निमेष दिन, रात्रि, पक्ष, मास, अयन. वर्ष आदि का व्यवहार कारक रूप से परिणत होता है।
पुद्गल भी औदारिक आदि शरीर आदि रूप रस गंध स्पर्श आदि रूप से अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ ही परिणत होता है । जीव ज्ञान-दर्शन-उपयोग रूप से तथा नारक देव मनुष्य तिर्यंच रूप से अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ ही परिणमन करताहै ।
इसी प्रकार शुक्ल आदि गुण वर्ण आदि सामान्य स्वरूप का त्याग न करते हुए ही कृष्ण आदि रूप से परिणत होते हैं । घट पर्याय भी अपने सामान्य मत्तिका स्वभाव का परित्याग न करते हुए ही कपाल (ठीकरे) अवस्था को प्राप्त करता है । इसी प्रकार कपाल आदि पर्याय भी कपालिका (छोटी ठीकरी), शकल (टुकड़ा) स्थास, कोश, कुशूल, शराव, उदंचन आदि रूप से सामान्य मृत्तिका स्वभाव का परित्याग न करते हुए ही परिणत होते हैं ।
इसी प्रकार परमाणु भी रूप, रस, गंध-स्पर्श आदि रूप से या द्वयणुक आदि स्कंध रूप से अपने स्वरूप का त्याग न करते हुए ही परिणत होते हैं । इसी प्रकार सब द्रव्य सदैव सूक्ष्म, बादर, उत्पाद, व्यय रूप से स्थिति अंश रूप सामान्य का परित्याग न करते हुए ही परिणत होते हैं।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧