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________________ दीपिकानि युक्तिश्च अ. २. सू. ३१ परिमाणस्वरूपनिरूपणम् ३३१ नादि परिणाम उच्यते । विशेषापेक्षया पुनः सपरिणामः सादिरित्युच्यते । यथा मृत्तिकाद्रव्यस्यपिण्डघटकपालकपालिकास्थासकोशशरावोदञ्चनादयः परिणामा भवन्तीति ॥ ३१ ॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः–—–— पूर्वमसकृत्परिणामः प्रतिपादितः यथा - समगुणः समगुणस्य परिणामं विद्यते, अधिकगुणो हीनगुणस्य परिणाममासादयतीत्यादि । तत्र - कः खलु परिणामपदार्थः ? किं धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि अर्थान्तरभूतं परिणामं जनयन्ति ? आहोस्वित्-त एव द्रव्यविशेषा धर्माधर्माकाशकालपुद्गला अजीवा - जीवाश्च स्वरूपमपरित्यजन्त एव किमपि वैशिष्ट्यं प्रतिपाद्यमानास्तथा तथा भवन्तीति सन्देहं निराकर्तुं परिणामं प्ररूपयति – “तब्भावो परिणामो -" इति । तद्भावः परिणामः, तस्य धर्माधर्मादिद्रव्यषट्कस्य तेन तेनाकारेण गति - स्थित्यवगाहपरत्वापरत्वशरीरादिज्ञानादिना भवनमात्मलाभो भावः तत्तद्रूपप्राप्तिः परिणाम इत्युच्यते । तान्येव खलु धर्मादिद्रव्याणि तथा - तथा ssकारेण भवन्ति - परिणमन्ति, न तु - कूटस्थानि अचलरूपेणाऽवतिष्ठन्ते, नापि सर्वथोत्पद्यन्ते, नो वा - सर्वथोच्छिद्यन्ते । तथाच--धर्मादिद्रव्याणां स्वस्वावस्थान्तरापत्तिः परिणामः तत्र धर्मद्रव्यं तावत् पुद्गलजीवादि द्रव्याणां जलचराणां जलमिव गत्युपग्रह कारक लोकाकाशव्यापि च वर्तते । एवम् - अधर्मद्रव्यं पुद्गलादीनां पान्थानां छायेव स्थित्युपग्रहकारकं लोकाकाशव्यापि च वर्तते इति धर्माधर्मादीनां षण्णां द्रव्याणां स्वभावः स्वतत्त्वं - परिणामः । सादि होता है, जैसे मृत्तिका द्रव्य के पिण्ड, घट, कपाल, कपालिका, और उदंचन आदि परिणाम ||३१|| स्थास, कोश, शराव तत्वार्थनियुक्ति --पूर्व में अनेक वार परिणाम का जिक्र किया गया है, जैसे समगुण समगुण वाले के परिणाम को धारण करता है, और अधिक गुणों वाला पुद्गल हीन गुण वाले पुद्गल को अपने रूप में परिणत कर लेता है, इत्यादि । तो परिणाम शब्द का अर्थ क्या है ? क्या धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य अर्थान्तर भूत परिणाम को उत्पन्न करते हैं ? अथवा वे द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग न करते हुए ही कीसी न किसी विशिष्टता को प्राप्त हो कर परिणत होते रहते हैं ? इस सन्देह का निवारण करने के लिये परिणाम शब्द की व्याख्या की जाती है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ धर्म अधर्म आदि छहों द्रव्यों का उस-उस आकार से अर्थात् गतिसहायकत्व, स्थितिसहायकत्व, अवगाह सहायकत्व, परत्व, अपरत्व, शरीर आदि तथा ज्ञानादि रूप से होना - आत्मलाभ-भाव ही परिणाम कहलाता है । धर्म आदि द्रव्य ही विभिन्न आकारों में परिणत होते रहते हैं; वे अचल या कूटस्थनित्य नहीं हैं। न तो उनका सर्वथा उत्पाद होता है और न सर्वथा विनाश ही । इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों की एक अवस्था से दूसरी अवस्था की प्राप्ति होना परिकी गति में उसी प्रकार सहायक होता है। जैसे जल जलचरजीवों की गति में सहायक होता है । अधर्मद्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त होत णाम है । उनमें धर्म द्रव्य जीवों और पुद्गलों ।
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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