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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. २ सू. २६ नित्यत्वलक्षणनिरूपणम् ३०३ निवृत्तिदृश्यते तदभिधानप्रत्ययव्यवहारविषयत्वात् । घटादिपर्यायनिवृत्तौ वा यदि न किञ्चित् पश्चादुपलभ्यते तदा प्रेक्षावान्–जनः पर्यायनिवृत्तौ सत्यां द्रव्यांशनिवृत्तिं श्रद्दधानोऽभ्युपगच्छेत् । ____ यतश्च-पर्यायनिवृत्तावपि मृद्रव्यांशः उपलभ्यते तस्मान्नद्रव्यांशनिवृत्तिरभ्युपगन्तुं शक्यते । तथाच-प्रत्यक्षविरोधेन तर्काऽवतारः सम्भवति तस्मादुपपत्त्यागमाभ्यां तद्भावाऽव्ययं नित्यमिति व्यवस्थितम् । उक्तञ्च-व्याख्याप्रज्ञप्तौ-भगवतीसूत्र १४ शतके ४ उद्देशके -"परमाणुपोग्गलेणं भंते? किं सासए-असासए ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहि असासए-"इति । परमाणुपुद्गलः खलु भदन्त ! किं शाश्वतः-अशाश्वतः ? गौतम ! द्रव्यार्थतया शाश्वतः, वर्णपर्यवैः यावत् स्पर्शपर्यवैरशाश्वतः, इति । एवं जीवाभिगमे ३ प्र० १ उद्देशके ७७ सूत्रे-चोक्तम्-‘परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सासए-असासए ? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं रसपज्जवेहि-गंधपज्जवेहिंफासपज्जवेहिं असासए-"इति । परमाणुपुद्गलः खलु भदन्त ! किं शश्वतः अशाश्वतः ? गौतम ! द्रव्यार्थतया शाश्वतः, वर्णपर्यवैः-२सपर्यवै :- गन्धपर्यवैः स्पर्शपर्यवैः अशाश्वत, इति । मगर ऐसा तो देखा नहीं जाता । अन्वयी मृत्तिका का अथवा पुद्गलजाति का किसी भी अवस्था में अभाव नहीं देखा जाता, क्योंकि उसका वही का वही नाम बना रहता है, उसका ज्ञान भी होता रहता है और मृत्तिकासाध्य व्यवहार भी होता रहता है । अगर घट का अभाव होने पर बाद में कुछ भी उपलब्ध न होता तो बुद्धिमान् पुरुष श्रद्धा कर लेते कि पर्याय का अभाव होने पर द्रव्य का भी अभाव हो जाता है । किन्तु पर्याय की निवृत्ति हो जाने पर भी मृत्तिका का सद्भाव बना रहता है । अतएव द्रव्य का विनाश होना स्वीकार नहीं किया जा सकता । जहाँ प्रत्यक्ष से विरोध आता हो वहाँ तर्क के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । इस प्रकार युक्ति और आगम से 'तद्भावव्यं नित्यम्' यह सिद्ध हुआ। व्याख्याप्रज्ञप्ति— (भगवती) सूत्र के शतक १४, उद्देशक ४ में कहा हैप्रश्न-भगवन् ! परमाणुपुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? उत्तर-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है और वर्णपर्याय यावत् स्पर्शपर्याय से अशाश्वत है। इसी प्रकार जीवाभिगम के ३ री प्र. उ. १ सूत्र ७७ में भी कहा हैप्रश्न-भगवन् ! परमाणुपुद्गल क्या शाश्वत है या अशाश्वत है ? उत्तर-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है-नित्य है और वर्णपर्याय, रसपर्याय, गन्धपर्याय और स्पर्शपर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत-अनित्य है। भगवतीसूत्र श. ७. उ. २ में कहा है શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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