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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. २६ नित्यत्वलक्षणनिरूपणम् २९९ प्रत्यभिज्ञानञ्च–पूर्वदृष्टस्य वस्तुनः चक्षुः पुरोवर्तित्वे सति इदं तत्-" इत्येवं चाक्षुषप्रत्यक्षस्मरणात्मकं ज्ञानमुच्यते, तच्च प्रत्यभिज्ञानं निर्हेतुकं न भवति इति योऽस्य प्रत्यभिज्ञानस्य हेतुः स सद्भाव इत्युच्यते । यथा-घटस्य, शरावस्य उदञ्चनादेर्वा मृत्पिण्डभावः कटक-वलय कुण्डलादीनां वा सुवर्ण द्रव्यम् , तद्भावेन मृत्पिण्डसुवर्णादिरूपेण अव्ययं व्ययो विनाशस्तद्रहितम् अव्ययं नित्यमुच्यते । तथाच-घटकुण्डलादौ मृत्पिण्डसुवर्णादिकं नित्यमिति निश्चीयते । तत्र-मृत्पिण्डाद् जायमानो घटपर्यायोऽप्रधानभूतः मृत्पिण्डभावस्तु-प्रधानभूतः इति तेन भावेन नित्यं घटादिवस्तु व्यवहियते तदपि नित्यं द्रव्यार्थिकनयेन कथञ्चिद् ज्ञातव्यम् । सर्वथा नित्यत्वस्वीकारे तुअन्यथाभावस्य पर्यायादेरभावः स्यात् तथा सति-आत्मनः सर्वथा नित्यत्वे-नरनारकादिरूपेण संसारः तद्विनिवृत्तिरूपमोक्षश्च न संघटेत ततश्च संसारस्वरूपकथनम्, मोक्षोपायकथनञ्च विरुध्येत तस्मात् कथञ्चिन्नित्यमिति ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः- पूर्वसूत्रे उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सदित्युक्तम् तत्र-गगनादिसद्वस्तु नित्यं वर्तते, सच्च-घटादिद्रव्यमनित्यं दृष्टम् । तस्मात्-सतां नित्यत्वदर्शनाजायमान सन्देहं दूरीकर्तुमाह पहले देखी हुई वस्तु जब पुनः नेत्रों के सामने आती है तब वह यही है' इस प्रकार का प्रत्यक्ष और स्मरण का जोड़ रूप जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । वह प्रत्यभिज्ञान निर्हेतुक नहीं हो सकता, अतः प्रत्यभिज्ञान का जो कारण है वह 'सद्भाव' कहा जाता है । जैसे घट, शराब, उदंचन आदि का मृत्पिण्डभाव; कटक; वलय, कुण्डल आदि का स्वर्ण द्रव्य तद्भाव अर्थात् मृत्पिण्ड या स्वर्ण आदि रूप से व्यय-विनाश न होना अव्यय अर्थात् नित्य कहलाता है। घट आदि में तथा कुण्डल आदि में मृत्पिण्ड और स्वर्ण आदि नित्य है, यह निश्चित होता हैं । मृत्तिकापिण्ड से उत्पन्न होने वाला घट पर्याय गौण है और मृत्पिण्डभाव प्रधान है । अतएव मृत्तिकापिण्डभाव से घट आदि वस्तु नित्य कही जाती है। उसकी नित्यता द्रव्यार्थिक नय से ही कथंचित् जानना चाहिए । सवथा नित्यता का स्विकार करने से तो अन्यथारूप होने का पर्याय का अभाव ही हो जाएगा ऐसी स्थिति में आत्मा को सर्वथा नित्य मान लेने पर नर नारक आदि रूप से संसार और उसकी निवृत्तिरूप मोक्ष भी घटित नहीं हो सकेगा । फिर तो संसार के स्वरूप का कथन और मोक्ष के स्वरूप का कथन भी विरुद्ध हो जाएगा। इस कारण वस्तु को कथंचित् नित्य ही मानना चाहिए ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति—पूर्वसूत्र में बतलाया गया है कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है। उनमें से आकाश आदि सत् वस्तु नित्य है और घट आदि सत् अनित्य है । इस प्रकार सत् पदार्थों में नित्यता और अनित्यता-दोनों देखने से उत्पन्न होने वाले सन्देह का શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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