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________________ तत्त्वार्थसूने सर्वस्यैव स्थूलस्य मूर्तद्रव्यस्य विदार्यमाणत्वे सति अशकयभेदपरमाणुषु पर्यवसानं भवति, न तु-अत्यन्ताभावरूपं सर्वथाऽलीकं गगनकुसुमादिवत् । अथवा-द्रव्यनयापेक्षया सर्वेषां व्यणुकादिद्रव्याणां परमाणव एव कारणं भवति, पर्यायनयाऽपेक्षया तु-उत्पद्यन्ते । एवञ्च-कथञ्चिदुपजायमानत्वात् कार्यमपि परमाणवो भवन्ति, ते च-परमाणवः प्रत्येकं स्वतो द्रव्यावयवद्वारेणाऽभेद्या भवन्ति । रूपरसादिपरिणामैः पुनर्भेदवन्तोऽपि भवन्ति । अथाऽप्रदेशत्वात् परमाणुः , 'शशृङ्गादिवत्" न सन् वर्तते इति चेत् ? मैवन् तस्य सावयवद्रव्यत्वाभावात् सावयवप्रतिपक्षेण चाऽवश्यं केनचिन् , सतैव वस्तुनाऽनवयवेन भवितव्यम् स चादिमप्रदेशः परमाणुरिति युत्तया-ऽऽगमेन च द्रव्यपरमाणुसिद्धिः तत्सिद्धौ च क्षेत्रकालभावपरमाणुसिद्धिरपि भवतीति विभावनीयम्---॥२२॥ मूलसूत्रम्---"एगत्तपुहुत्तेहिं चक्खुसा,' ॥२३॥ छाया-"एकत्व-पृथक्त्वाभ्यां चाक्षुषा:-" ॥२३॥ तत्त्वार्थदीपिका— “अथा-ऽनन्तपरमाणुसमुदायेन निष्पद्यमानोऽपि स्कन्धः कश्चित्-चाक्षुषके होने पर गुड़ आदि अपने रूप में नहीं रहते । अतएव परमाणु द्वयणुक आदि का कारण ही है, यहाँ 'ही' का प्रयोग करना उचित नहीं है। समाधान-किसी भी स्थूल मूर्तद्रव्य का यदि पथक्करण किया जाय तो परमाणुओं के रूप में ही उसका अन्त होगा, जिनका फिर पृथक्करण हो ही नहीं सकता । उस द्रव्य का गगन कुसुम के समान सर्वथा शून्य रूप नहीं होगा। अथवा यों कहें कि द्रव्यमय की अपेक्षा से द्वयणुक आदि द्रव्यों के कारण परमाणु ही हैं और पर्यायनय की अपेक्षा से उनकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार किसी अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण परमाणु को कार्य भी कहा जा सकता है । वे परमाणु स्वयं किसी भी द्रव्य के अवयव के द्वारा भेद्य नहीं होते । हाँ, रूप रस आदि परिणाम उनमें पाये जाते हैं, इस अपेक्षा से वे भेदवान् भी होते हैं-उनमें भेद किया जा सकता है ? शंका-परमाणु प्रदेशहीन होने के कारण शशकविषाण के समान असत् है । समाधान-परमाणु सावयव द्रव्य नहीं हैं, सावयव द्रव्य का प्रतिपक्षी है और सावयव द्रव्य का प्रतिपक्षी होने से अवश्य ही सत् होना चाहिए और निरवयव होना चाहिए । वह प्रदेश रहित है। इस युक्ति और आगम प्रमाण से द्रव्यपरमाणु की सिद्धि होती है । द्रव्य परमाणु की सिद्धि हो जाने पर क्षेत्रपरमाणु कालपरमाणु और भावपरमाणु की भी सिद्धि हो जाती है। यह स्वयं समझ लेना चाहिए ॥२२॥ मूलसूत्रार्थ----"एगत्त-पुहुत्तेहि" इत्यादि । संघात और भेद से स्कंध चक्षुग्राह्य हो जाते हैं ॥२३॥ तत्त्वार्थदीपिका-अनन्तानन्त परमाणुओं के समूह से निष्पन्न हुआ भी कोई स्कंध चक्षु શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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