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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०१ नवतत्वनिरूपणम् ७ आत्यन्तिक कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः यद्यपि वाचकप्रवरोमास्वाति स्वामिना पुण्य-पाप-तत्त्वद्वयं परित्यज्य सप्तविधमेव पदार्थत्वं तत्त्वार्थसूत्रे प्रतिपादितम् किन्तु - स्थानाङ्गादौ पूर्वोक्तनवविधानामेव पदार्थतत्त्वानां प्रतिपादितत्त्वेन प्रकृतेऽपि तेषां सप्तानामिव पुण्यपापरूपतत्त्वद्वयस्यापि हेयोपादेयतया परिज्ञानस्य परमावश्यकत्वेन नवविधतत्त्वकथनस्यैवौचित्यम् । यदि तु पुण्यपापयोरास्रवबन्धान्तर्भावेण तयोः पृथगुपादानं नोचितमित्युच्यते, तदाssस्रवादिपञ्च तत्त्वानां जीवाजीवयोरेवान्तर्भाव संभवेन द्विविधस्यैवजीवाजीवतत्त्वस्य तेषां कथनौचित्यापत्तिः । तथाहि—आस्रवस्तावद् मिथ्यादर्शनादिरूपो जीवस्य परिणामविशेषः सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य न कोप्यतिरिक्तः संभवति । बन्धः पुनः पुद्गलस्वरूपमात्मप्रदेशसंश्लिष्टं कर्म एव । संवरस्तु—आस्रवनिरोधात्मको देश सर्वभेदलक्षण आत्मनो निवृत्तिरूपः परिणामः । निर्जरापि - तावद् देशतः कर्मपरिशाटना रूपा, ताश्चापि जीवः स्वशक्त्या कर्मणा पार्थक्यरूप मापादयति । मोक्षोऽपि खल्लु–समस्तकर्म विरहितः – “आत्मैवायम्” इति रीत्या पश्चानामपि - आस्रवादीनां जीवाजीवयोरन्तर्भावात् " जीवाजीवास्तत्त्वम्” – इत्येव सूत्रं वक्तुमुचितमासीत्, तथैव पूर्ण रूप से समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष कहलाता है । बोध, शम, वीर्य, दर्शन तथा आत्यन्तिक, एवं ऐकान्तिक, अनाबाध एवं सर्वोत्तम सुख स्वरूप आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाना मोक्ष है । यद्यपि वाचकवर्य उमास्वाति स्वामी ने पुण्य और पाप को छोड़ कर सात ही तत्त्वका तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादन किये हैं, तथापि स्थानांग आदि सूत्रों में पूर्वोक्त नौ पदार्थों का ही कथन किया गया है, अत एव यहाँ भी उन्हीं नौ तत्त्वों को ग्रहण किया है । जिस प्रकार हेय - उपादेय रूप से सात तत्त्वों का परिज्ञान होना परमावश्यक है उसी प्रकार पुण्य और पाप का परिज्ञान भी आवश्यक है अतएव नौ तत्त्वों का कथन करना ही उचित है । पुण्य और पाप का आस्रव और बन्ध तत्त्व में समावेश हो जाता है, अतएव उन्हें अलग गिनाना उचित नहीं है, ऐसा कहा जाय तब तो आस्रव आदि पाँच तत्वों का भी जीव और अजीब तत्त्वों में अन्तर्भाव करके दो ही तत्त्व कहना चाहिए था । यथा --- आस्रव मिथ्यादर्श - नादि रूप जीव का परिणामविशेष है । वह आत्मा और पुद्गल के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है । इसी प्रकार आत्मप्रदेशों के साथ बद्ध कर्म भी पुद्गल होने से अलग नहीं है । संवर आस्रव का निरोध है । वह देशविरति और सर्वविरति रूप आत्मा का परिणाम ही है । एक देश से कर्मों का पृथक् हो जाना निर्जरा है । जीव अपनी शक्ति से कर्मों को पृथक् करता है । वह भी जीव और अजीव से भिन्न नहीं है है । इस प्रकार आ आदि पाँचो तत्त्वों का जीव और 1 । समस्त कर्मों से रहित आत्मा ही मोक्ष अजीव तत्त्व में ही अन्तर्भाव हो जाता શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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