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________________ दीपिका निर्युक्तिश्च अ० १ नवतत्त्वनिरूपणम् ५ उक्तञ्चोत्तराध्ययनस्य विंशतितमेऽध्ययने गाथा ३७ 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य' इति । अस्य भेदोपभेदान् अग्रे वक्ष्यन्ति चैतन्यलक्षणरहितः अबोधात्मकोऽजीवो धर्मास्तिकायादि स्वरूपः। स च चतुर्विधः धर्मास्तिकाया--ऽधर्मास्तिकाया--ssकाशाऽस्तिकायपुद्गलास्तिकायभेदात् । उक्तञ्चोत्तराध्ययनस्य २८ अध्ययने “धम्मो अहम्मो आगासं" । एवञ्च जीवाजीवा - त्मकं तत्त्वद्वयं परमावश्यकतया विज्ञातुम् अन्यत्राऽपि उक्तम्चिदचिद् द्वे परे तत्वे विवेकस्तद्विवेचनम् । उपादेयमुपादेयं यं यश्च कुर्वतः ॥ १॥ यं हि रागद्वेषादि तत्कार्यमविवेकिता उपादेयं परं ज्योतिरूपयोग कलक्षणम् ॥१ इति ॥ अयोगोलकवद् नीरक्षीर - वद् वा जीवकर्मणो र्जतुकाष्टन्यायेन संश्लेषः कर्मवर्गणा रूप पुद्गलादानं बन्धः वक्ष्यमाणाऽऽत्रवरूपहेतुभिर्गृहीतस्य कर्मण आत्मना सह प्रकृत्यादि विशेषितः संयोगो वा बन्धः । पुण्यं---शुभकर्म तगऽन्नपुण्यादिकं नवविधं पुण्यमग्रे वक्ष्यते पुनाति पवित्रीकरोति आत्मानमिति पुण्यपदव्युत्पत्तिः ॥४ का बिज्ञासा, पुण्य-पाप का कर्त्ता एवं उनके फल का साक्षात् भोला और स्वभावतः अमूर्त अर्थात् रूप रस गन्ध और स्पर्श से रहित है । उत्तराध्यय सूत्र के २० वें कहा है-- 'आत्मा स्वयं ही अपने दुःख-सुख का कर्त्ता हर्त्ता है ।' वर्णन आगे किया जाएगा । जिसमें चेतना न हो, जो जड़ हो वह अजीव तत्त्व है । उसके चार भेद हैं- (१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय और (४) पुद्गलास्तिकाय । उत्तराध्ययन के २८ वें अध्ययन में कहा है--- धर्म अधर्म आकाश । इस प्रकार जीव और अजीव इन दो तत्त्व का जानना परमावश्यक होने के कारण अन्यत्र भी कहा हैं— 'जो उपादेय ग्राह्य को ग्रहण करना चाहता हैं और हेय को त्यागना चाहता है, उसके लिए दो मूलभूत तत्त्व हैं - जीव और अजीव । राग-द्वेष आदि तथा उनसे उत्पन्न होने वाले अज्ञान आदि हेय हैं और उपयोग रूप परम ज्योति उपादेय है ।' अध्ययन गाथा ३७ में जीब के भेद - प्रभेदों का अग्नि और लोहे के गोले के समान अथवा क्षीर और नीर के समान कार्मणवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्ध कहलाता हैं। आगे कहे जाने वाले आस्लव के कारणों से गृहीत कर्म पुद्गलों का प्रकृति, स्थिति आदि विशेषणों से विशिष्ट संयोग होना बन्ध है । शुभ कर्म पुण्य कहलाता है । अन्नपुण्य आदि के भेद से उसके नौ भेद हैं, यह आगे શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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