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________________ २३८ तत्त्वार्यसूत्रे "उष्मगुणः सन् दीपः स्नेहं वा यथा समादत्ते. । आदाय शरीरतया परिणमयति चापि तं स्नेहम्. ॥१॥ "तद्वद्रागादिगुणः स्वयोगवात्मदीप आदत्ते. । स्कन्धानादाय तथा परिणमयति तांश्च कर्मतया. ॥२॥ इति । तस्मात्-जीवानामौदारिकादिशरीराद्याकारेणोपकारिणः पुद्गला एव भवन्ति. न तु-प्रधानरूपप्रकृतिविज्ञानस्वभावपरमेश्वरनियतिरूपाऽदृष्टपुरुषकालादयः शरीराद्याकारपरिणामभाजो मवन्ति, युक्तिशून्यत्वात्, इत्येवं तावत्--जीवानां पुद्गलकृत--औदारिकादिशरीराद्युपकारक प्रतिपादितः । सम्प्रति-प्रकारान्तरेणाऽपि निमित्तमात्रतया पुद्गलानां जीवोपकारकत्वमुच्यते । जीवानां सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहे च पुद्गला हेतवो भवन्ति । तथाच-सातवेदनीयाऽसातवेदनीयोदयादौ पुद्गलानामपेक्षाकारकत्वमवगन्तव्यमिति पर्यवसितम् । एवञ्च इष्टाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दरूपाः पुद्गला निमित्ततया सुखोपकारका भवन्ति । अनिष्टाः पुनस्ते-दुःखजनकाः, स्थानाच्छादना-ऽनुलेपनभोजनादयः पुद्गला जीवितस्य-उपकारका; आयुष्कस्य चाऽनपवर्तनका भवन्ति, विषश त्राग्न्यादयश्च पुद्गला मरणकारका भवन्ति अयुष्कस्य चा-ऽनपवर्तनकारिणो बोध्याः तथाच-औदारिकादिशरीराद्याकारेण परिणताः सन्तः पुद्गलाः साक्षादेवा-ऽऽत्मन उपकारं कुर्वन्ति । कर्म के योग्य पुद्गलों को समस्त आत्मप्रदेशों से ग्रहण करता है, ग्रहण किये वे पुद्गल बन्ध के कारणसंहत (मिले हुए) ही रहते हैं बिखरते नहीं हैं । कहा भी है __'उष्णता गुण वाला दीपक बत्ती के द्वारा स्नेह (तेल) को ग्रहण करता है. उसी प्रकार रागादि की उष्णता से युक्त होकर योग रूपी बत्ती के द्वारा आत्मा रूपी दीपक कर्म स्कंध रूपी तेज को ग्रहण करके उन्हें कर्म रूप में परिणत करता है।' ___ इस प्रकार पुद्गल ही औदारिक आदि शरीरों के रूप में जीवों के उपकारक होते हैं, प्रकृत, विज्ञान, स्वभाव, परमेश्वर, नियति, अदृष्ट, हठपुरुष अथवा काल आदि नहीं । वे शरीर आदि के रूप में परिणत नहीं होते । उनको स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है। इस प्रकार जीवों के प्रति पुद्गलों का उपकार प्रतिपादन किया गया । अब दूसरे प्रकार से यह दिखलाते हैं कि निमित्त बन कर पुद्गल किस प्रकार जीवों का उपकार करते हैं ? जीवों से सुख, दुःख, जीवन और मरण रूप उपग्रह में भी पुद्गल कारण होते हैं । साता और असातावेदनीय कर्म के उदय में पुद्गल निमित्त कारण होते हैं । इसी प्रकार इष्ट स्पर्श, रस, गंध वर्ण और शब्द रूप पुद्गल सुख के निमित्त कारण होते हैं और अनिष्ट स्पर्श आदि दुःख के कारण होते हैं। स्थान' आच्छादन, लेपन, भोजन आदि संबंधी पुद्गल जीवन के उपकारक हैं और आयु के अनपवर्तक होते हैं, इनसे बिपरीत विष' शस्त्र, अग्नि आदि के पुद्गल मरण के कारण बन जाते हैं-आयु का अपव શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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