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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०२ सू.० १६ __ पुद्गललक्षणनिरूपणम् २३५ तत्वार्थनियुक्ति:--- विशरणशीलामा मौदारिकांदि पञ्चप्रकारकशरीराणाम् वाङ्-मनः प्राणा-5पानानाम् सुख-दुःखजीवित मृत्यूनाञ्चोपग्राहकतयोपकारकत्वेन परमाण्वादिमहास्कन्धपर्यन्ताः पुद्गला हेतवो भवन्ति । तथाचौदारिकादीनि पञ्चविधशरीराणि प्रतिवाङ्मनःप्राणापानान् प्रति सुख-दुःखजीवीतमृत्यून् प्रति च पुद्गलानामुपकारो बोध्यः । औदारिकशरीरादीनामुपकारकाः पुद्गला भवन्तीति भावः । तथाहि-औदारिकादीनि शरीराणि पौगलिकानि भवन्ति अतस्तानि प्रतिपुद्गलाना मुपकारकत्वाद् हेतुत्वमवसेयम् । एवं वागपि पौद्गलिकी भवति सा च भाषापर्याप्तिभाजां प्राणिनां वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाऽङ्गोपाङ्गा नामनिमित्ता रणनस्वभावा भवति, अर्थात्-भाषायोग्यान् पुद्गलस्कन्धान् कायव्यापारेणोपादाय वीर्यवान् जीवो भाषात्वेन परिणमय्य वाक्पर्याप्तिकरणेन स्वपरोपकारस्य निसृजति. । तथाच-वाचः पौद्गलिकतया मूर्त्तत्वे सत्यपि न चक्षुर्ग्राह्यत्वं भवति. जलमध्यप्रकीर्णलवणशर्करावत्, नहिहि--- सकलमेव रूपादिमद् वस्तु चक्षु रादिग्राह्यं भवत्येवेति नियमोऽस्ति. पुद्गलानां परमाण्वादिविचित्रपरिमाणावेशात्. अतो न वाक-अमूर्ती भवति, पूर्ववायुवेगाऽभ्याहत पश्चिमदिग्भागावस्थितश्रवणपरिणतोपलभ्यत्वात्- प्रतिघाताभिभवसद्भावाच्च.। तत्त्वार्थनियुक्ति - विनाशशील औदारिक आदि पाँच प्रकार के शरीरों के वचन, मन, प्राण, अपान, सुख, दुःख, जीवन और मरण के उपग्राहक होने के कारण परमाणु से लेकर महास्कंध पर्यन्त पुद्गल उपकारक होते हैं । इस प्रकार औदारिक आदि पाँच शरीरों के प्रति, मन वचन और प्राणापान के प्रति तथा सुख, दुःख, जीवन और मरण के प्रांत पुद्गलों का उपकार समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि पुद्गल शरीर आदि के कारण होते हैं । औदारिक आदि पाँचों शरीर पुद्गल के बने होते हैं, अतः पुद्गल उपकारक होने से उनका कारण है । इसी प्रकार वचन भी पौद्गलिक हैं । वह भाषापर्याप्ति वाले प्राणियों में पाये जाते हैं । वीर्यान्तराय एवं ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांगनामक नामकर्म के निमित्त से उत्पन्न होते हैं और गूंजमाध्वनित होना उनका स्वभाव है । तात्पर्य यह है कि भाषापर्याप्ति से पर्याप्त वीर्यवान् जीव भाषा के योग्य पुद्गल स्कंधों को कायिक व्यापार से ग्रहण करके और भाषा के रूप में परिणत करके वचनयोग्य के द्वारा स्व पर के उपकार के लिए निकालता है । वचन पौद्गलिक होने के कारण यद्यपि अमूर्त है, फिर भी जलमें घुले हुए नमक या शक्कर के समान नेत्रग्राह्य नहीं होते । ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रत्येक रूपी वस्तु नेत्रग्राह्य होनी ही चाहिए । पुद्गलद्रव्य परमाणु आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है । अतः वचन अमूर्त नहीं हैं, क्योंकि वह पूर्वीय वायुवेग से प्रेरित हो कर पश्चिम दिशा में स्थित श्रोता को सुनाई देती है । इसके अतिरिक्त उसका प्रतिघात भी होता है और अभिभव भी होता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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