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________________ २३० तत्त्वार्थसूत्रे तथाच-गतिस्थित्यवगाहपरिणतजीवपुद्गलद्रव्यसामीप्येन धर्मादीनां व्याप्रियमाणतैव तदुपकारो व्यपदिश्यते इति फलितम् । अथैवमपि धर्माधर्मपुद्गलजीवानामनुप्रवेशनिष्क्रमणस्वभावरूपोऽवगाह आकाशस्य लक्षणं पर्यवसितं तन्नोपपद्यते, उक्तलक्षणावगाहस्य पुद्गलजीवसम्बन्धितया–ऽऽकाशसम्बन्धितया चोभयनिष्ठत्वात् तदुभयजन्यत्वाच्च ब्यङ्गुलादिसंयोगवत् न केवलम् आकाशस्यैव स्वतत्वम् न हि द्रव्यद्वयजनितसंयोग एकेनैव द्रव्येण व्यपदेष्टुं शकयते एकस्यैव वा लक्षणं वक्तुं पार्यते इति चेत्सत्यम् । आकाशस्यैवा-ऽवगाह्यस्य प्रधानतया लक्ष्यत्वेन विवक्षितत्वात् प्रधानमवगाहनमनुप्रवेशो यत्र तद् आकाशमवगाहलक्षणं प्रतिपादितम् अन्यत्पुनरवगाहकं जीवपुद्गलादिसंयोगजनकत्वस्य सत्वेऽपि प्रधानतया लक्ष्यत्वेन न विवक्ष्यते तस्माद्-आकाशस्यैवा-ऽवगाहलक्षणं युक्तम् यतोहिआकाशमेवा-ऽसाधारणकारणतयाऽवगाहमानजीवपुद्गलादिद्रव्याणामवगाहदायि भवति,न तु-अनवगाहमानं जीवपुद्गलादिबलादवगाहयति । एवञ्च---द्रव्यान्तरासम्भाविना जीवपुद्गलानामवगाहदानलक्षणोपकारेणाऽतीन्द्रियमपि आकाशमनुमातव्यम् । आत्मवत्-धर्मवद्वा । एवञ्च यथा-पुरुषहस्तदण्डभेर्याधातजन्यः शब्दो भेरी इस कथन का फलितार्थ यह है कि गति, स्थिति और अवगाह रूप में परिणत जीव और पुद्गल द्रव्य के सामीप्य से धर्मादि का व्यापार होना ही उनका उपकार कहलाता है। शंका- की जा सकती है कि ऐसा मानने पर भी धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य का प्रवेश और निष्क्रमण रूप अवगाह आकाश का लक्षण सिद्ध होता है । यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त लक्षण वाला अवगाह पुद्गल-जीव संबन्धी तथा आकाश संबन्धी होने से उभयनिष्ठ है-दोनों में रहता है । और दोनों के द्वारा जनित होने के कारण, दो उंगलियों के संयोग के समान, किसी एक का लक्षण नहीं कहा जा सकता । अर्थात् जैसे दो उङ्गलियों के संयोग को एक उंगली का धर्म नहीं कह सकते, उसी प्रकार उक्त अवगाह भी सिर्फ आकाश का नहीं कहा जा सकता । उक्त शंका ठीक है किन्तु यहाँ लक्ष्य होने के कारण अ'काश की ही प्रधान रूप से विवक्षा की गई है। इसी कारण ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि जहाँ अवगाहन---अनुप्रवेश हो, वह आकाश है। इस तरह आकाश का लक्षण अवगाहना कहा गया है । अवगाहक जो जीव और पुद्गल हैं, वे भी यद्यपि संयोग के जनक हैं तथापि उनकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है । इस कारण अवगाह को आकाश का लक्षण मानना उचित ही है । अवगाहमान जीव और पुद्गल आदि द्रव्यों को अवगाह देने में आकाश ही असाधारण कारण है । मगर वह अवगाह देने में जबर्दस्ती नहीं करता । इस प्रकार आकाश यद्यपि अमूर्त है तथापि जीवादि को अवगाहना देने रूप उपकार से उसका अनुमान किया जा सकता है, जैसे कि आत्मा अथवा धर्म के विषय में अनुमान શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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