SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ तत्त्वार्थसूत्रे प्रमाणएवेति सामर्थ्याभावेन नातः परम् अनावरणवीर्यस्यापि भगवतः संहरणं सम्भवति, किमुत वक्तव्यं शेषसंसारिण इति । स्वभावश्चाऽयम् एतावानेवोपसंहारः, नहि हि स्वभावे पर्यनुयोगः सम्भवति । किञ्चसकर्माऽसौ विद्यते तस्माद् अल्पतर उपसंहारो न भवति । अथ कर्मवियुक्तः कस्मान्नोपसंहरतीति चेन्मैवम् प्रयत्नाऽभावात् । प्रयत्नाभावश्च-करणाभावात् । अत्रेदं बोध्यम्-संक्षिपतो विकसन-सङ्कोचनधर्मत्वात् आत्मप्रदेशसमूहः कमलनालतन्तुसन्तानवत्-अविच्छेदेन विकासमासादयति । अविच्छेदश्च–प्रदेशानाममूर्तत्वात् विकासधर्मत्वात् एकत्वपरिणतत्वात् जीवाभिवृद्धविकासश्च सिद्धः । छेददर्शनात् सक्रियत्वाच्च कमलनालतन्तुसन्तानवद्-गृहगोधिकापुच्छवदेव च जीवप्रदेशाः सकलमन्यद् विशन्ति स्वल्पं परित्यज्य । अथ मस्तके छिन्ने सति शिरोऽपविध्य कथं स प्रदेशसन्तानं छिन्नमस्तकं शरीरं नाऽऽविशति इति चेत् ? उच्यते-वेदनायुषोर्भेदेन दोषाभावः । बहवो जीवप्रदेशाः संघीभूयासते यद्यपि सिद्ध जीवों का सहज वीर्य निरावरण होता है तथापि उनमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे उससे अधिक अवगाहना का संकोच कर सकें। संसारी जीवों का तो कहना ही क्या ! जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि इससे अधिक संकोच नहीं हो सकता और स्वभाव के विषय में कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त संसारी जीव कर्ममुक्त होने के कारण उससे अधिक संकोच नहीं कर सकता । शंका-कर्ममुक्त जीव क्यों अधिक संकोच नहीं करता ? समाधान—इस कारण कि वे प्रयत्न नहीं करते । शंका-प्रयत्न क्यों नहीं करते ? समाधान-प्रयत्न करने का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता । यहाँ यह समझ लेना चाहिए-संकुचित आत्मप्रदेश जब विकसित होते हैं तब उनका संबन्ध परस्पर टूट नहीं जाता, वरन् कमल की नाल के तन्तुओं के समान वे आपस में जुड़े रहते हैं। सम्बन्ध न टूटने का कारण यह है कि प्रथम तो वे अमूर्त हैं, दूसरे विकासशील हैं और तीसरे एकत्व रूप परिणाम में परिणत होते हैं । जीव की वृद्धि देखने से आत्मप्रदेशों का विकास सिद्ध होता है। छिपकली की पूछ जब कट जाती है तो थोड़ी देर तक वह छटपटाती है, बाद में स्तब्ध हो जाती है । इससे अनुमान किया जा सकता है कि छिपकली के कतिपय जीवप्रदेश उसकी कटी हुई पूछ में भी कुछ समय तक रहते हैं और बाद में नहीं रहते । वे प्रदेश कहाँ चले जाते हैं ? छिपकली के शरीर में ही चले जाते हैं, क्योंकि उनका संबन्ध सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुआ था, कमल की नाल के तन्तुओं की तरह वे परस्पर में सम्बद्ध थे । शंका----ऐसा है तो मस्तक कट जाने पर भी मस्तक में स्थित प्रदेश शेष शरीर में क्यों नहीं चले जाते ? और मनुष्य उस पूछ-कटी छिपकली के समान जीवित क्यों नहीं रहता ? શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy