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________________ तत्त्वार्थ सूत्रे स्याद्वादिभिर्नहि एकान्तेन व्योमनित्यमभ्युपगम्यते, नाऽपि चर्म - एकान्तेनानित्यं सर्वस्यैव वस्तुनः उत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्वात् । एकान्तनित्यानित्ययोश्च -- कर्मफलसम्बन्धोऽपि नोपयुज्यते इति । - यथा तैलवर्तिका वह्निसामग्रीप्रवृद्धः प्रज्वलन् प्रदीपो विशालामपि कूटागारशालां प्रकाशयति । शरावो - दञ्चन - माणिकाद्यावृत्तस्तु-लध्वौरपि शरावोदञ्चनमाणिका: प्रकाशयति । एवं द्रोणावृतः पुनर्द्रोणम्, आढकावृतश्चाढकम्, प्रस्थावृतः प्रस्थम्, हस्तावृतश्च हस्तं प्रकाशयति, इत्येवं रीत्याऽपरित्यक्तस्वात्मावयवोऽपि प्रदीपोऽनेकमाकारमादत्ते । एवञ्च - २२० एवं जीवोsपि-स्वप्रदेशानां संहारविसर्गाभ्यां विशालं - लघु वा पञ्चविधं शरीरस्कन्धं धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवप्रदेशसमुदायं व्याप्नोति, अवगाह्याऽवतिष्ठते । तथा चाऽवश्यमेव लोकाकाशे धर्माधर्माकाशपुद्गलाः सन्ति, जोवप्रदेशश्च - भजनया यत्रैको जीवोऽवगाढो भवति, तत्राऽन्यस्याप्यवगाहो न विरुध्यते इति भावः । तथाच ---- एकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशेऽनेकजीवानामनेकप्रदेशावगाहात् अनावृतो द्वीपः स्वावयवमानमेवाऽवकाश व्याप्नोति, न सम्पूर्ण जगत् । आत्मा पुनः समुद्घातकाले लोकव्यापि भवति । सिद्धिकाले तु - त्रिभागोनावशिष्टः, अशुषिरसम्भूतशरीरानुकार्यवगाहादनन्तरं निष्प्रयोजनत्वेना - Sवगाह - सङ्कोचाऽभावोऽवसेयः । इस आरोप का निराकरण भी हो जाता है कि चाहे वर्षा हो, चाहे धूप हो, आकाश का क्या बिगड़ता है ? वर्षा और धूप का प्रभाव तो चमड़े पर ही होता है । यदि आत्मा चमड़े के समान है तो अनित्य हो जाएगा और यदि आकाश के समान नित्य है तो सुख - दुःख का भोग नहीं कर सकेगा । स्याद्वादी न तो आकाश को एकान्त नित्य स्वीकार करते हैं और न चमड़े को एकान्त अनित्य, क्योंकि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त है । आत्मा को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानने पर कर्मफल का संयोग भी घटित नहीं हो सकता । 1 इस प्रकार जैसे तेल, बत्ती, अग्नि आदि सामग्री से वृद्धि को प्राप्त जलता हुआ दीपक विशाल कूटागारशाला को प्रकाशित करता है, और शराव, ढकना उदंचन एवं माणिका आदि से आवृत होकर उनको ही प्रकाशित करता है, इसी प्रकार द्रोण से आवृत होकर द्रोण को, आढक से आवृत होकर आढक कों प्रस्थ से आवृत होकर प्रस्थ (सेर) को हस्त से आवृत होकर हस्त को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार जीव भी अपने प्रदेशों के संकोच और विस्तार से बड़े अथवा छोटे पाँच प्रकार के शरीरस्कंध को तथा धर्म, अधर्म, अथवा, पुद्गल और जीव के प्रदेशों के समूहको व्याप्त करता है अर्थात् उन्हें अवगाहन करके रहता है । इस प्रकार लोकाकाश में धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल अवश्य होते हैं । जीवप्रदेश भजना से होते हैं । जहाँ एक जीव का अवगाह होता है वहाँ दूसरे जीव के अवगाह का कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार लोकाकाश के एक प्रदेश में अनेक जीवों के अनेक प्रदेशों का अवगाह है। अच्छादनरहित दीपक उतने ही आकाशप्रदेशों को व्याप्त करता है जितने उसके अवयव हों । वह सम्पूर्ण लोक कों प्रकाशित नहीं कर सकता, पर आत्मा समुद्घात के समय समस्त શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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