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________________ दीपिकनियुक्तिश्च अ० २ सू. ६ धर्माधर्मादीनां प्रदेशत्वनिरूपणम् १९९ अवगाहरूपे प्रदेशलक्षणे ज्ञाते सति लोकाऽऽकाशे यत्राकाशप्रदेशो यावान् वर्तते तत्रैव यो धर्मास्तिकायप्रदेशोऽवगाढः स च-तावानेवेति । एवमधर्मादिप्रदेशोऽपि तत्र वक्तव्यः, तत्राकाशमवकाशदाने व्यापृतं भवति । परिणामे धर्मद्रव्यम् उपकारकं भवति । स्थितिपरिणामे चाऽधर्मद्रव्यमुपकारकं भवति । इति रीत्या सर्वप्रदेशानामिदमव्याहितं लक्षणं बोध्यम् । अत्र प्रतिजीवमसंख्येयप्रदेशत्वख्यापनाय एकपदोपादानं कृतम् । अन्यथा- केवलजीवपदोपादाने ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावस्य जीवसमूहस्यैवाऽसंख्येयप्रदेशत्वं स्यात् न तु-प्रत्येकजीवस्य, साङ्कर्यापत्तेः । एकपदोपादाने तु प्रत्येकजीवस्याऽसंख्येयप्रदेशत्वं लभ्यते । तथाच प्रत्येक सर्वेषां जीवानामसंख्येयप्रदेशत्वे तुल्येऽपि चर्मादिवत् संकोच-विकासस्वभावा जीवप्रदेशा वर्तन्ते तेन-सङ्कोचविकासस्वाभाव्यात् कदाचित् त एव जीवप्रदेशाः परमनिकृष्टकुन्थुशरीरग्राहिणो भूत्वाऽपि कदाचित्-विकासिततया तामेव संख्यामपरित्यजन्तोऽतिविशालहस्तिशरीरग्राहिणो भवन्ति । एवं जीवाजीवाधारक्षेत्रभूतलोकाकाशस्याऽपि असंख्येया एव प्रदेशा भवन्ति न तुसंख्येयाः, नाऽप्यनन्ताः । सर्वाकाशरूपस्य लोकालोकाकाशस्य तु-अनन्ताः प्रदेशाः सन्ति, न तु-असंख्येया, नाऽपि-संख्येयाः प्रदेशाः, इत्यग्रिमसूत्रेणाऽभिधास्यते । हमारी कोई हानि नहीं है अवगाहरूप प्रदेश का लक्षण जान लेने पर यह भी जाना जा सकता है कि लोकाकाश में आकाश के एक प्रदेश में जितना धर्मास्तिकाय का प्रदेश अवगाढ़ है, वह उतना ही है । अर्थात् लोकाकाश के एक प्रदेश सूक्ष्मतम अंश में धर्मास्तिकाय का जो सूक्ष्मतम अंश व्याप्त है, वही धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश कहलाता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेश के संबंध में भी जानना चाहिए । आकाश अवकाश देने में काम आता है, धर्मद्रव्य गति में उपकारक होता है अधर्मद्रव्य स्थिति में निमित्त होता है । इस प्रकार सभी प्रदेशों का यह अव्याहत लक्षण समझ लेना चाहिए । प्रत्येक जीव के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते है, इस तथ्य को प्रगट करने के लिए सूत्र में 'एक' शब्द का प्रयोग किया गया है । सिर्फ जीव पद का ही प्रयोग किया गया होता तो ज्ञान-दर्शन-उपयोग स्वभाव वाले जीवसमूह के अर्थात् सब जीवों के मिलकर असंख्यात प्रदेश समझ लिए जाते; एक जीव के नहीं । इस प्रकार संकरता हो जाती । 'एक' पद का प्रयोग करने से एक-एक जीब के असंख्यात प्रदेशों का बोध होता है । इस प्रकार प्रत्येक जीव के असंख्यात प्रदेश तुल्य है तथापि चर्म (चमड़े) आदि के समान वे संकोच और विस्तार स्वभाव वाले होने के कारण वही जीवप्रदेश कदाचित सबसे छोटे कुंथु आदि के शरीर में समा जाते है और कदाचित् फैलकर, संख्या में उतने के उतने रहते हुए भी विशाल हस्ति शरीर को व्याप्त कर लेने है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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