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________________ ૨૮ तत्त्वार्थ सूत्रे तावत् लोकसन्निवेशवदनासादितपूर्वापरावधिविभागं सन्तानाव्यवच्छेदेन स्वभावमजहत् तिरोहिताsaपरिणामप्रसवशक्तियुक्तं भवनमात्रकृतास्पदं प्रसिद्धमेव । द्वितीयं पुनः श्रुतोपदेशनित्यतावदुत्पत्तिप्रलयवत्त्वेऽपि अवस्थानात् पर्वतोदधिवलयाद्यवस्थानबच्च सावधिकम् । एवम् - अनित्यत्वमपि द्विविधं प्रज्ञप्तम्, परिणामाऽनित्यत्वम् - उपरमाऽनित्यत्वञ्च । तत्र - परिणामाऽनित्यत्वं तावत् मृत् त्पिण्डो विस्रसाप्रयोगाभ्यामनुसमयमवस्थान्तरं पूर्वावस्थाप्रच्यवेन समासादयति, उपरमाऽनित्यत्वं पुनर्भवो च्छेदवदपास्तगतिचतुष्टयपरिभ्रमक्रियाक्रमपर्यन्तबर्तिपरिप्राप्तावस्थानविशेषरूपं भवति, न तु - अत्यन्ताभाववर्ति । तत्र - परिणामाऽनित्यतया पुद्गलद्रव्यमनित्यं व्यपदिश्यते, तद् भावाव्ययतया च नित्यं व्यवह्रियते, उभयथा व्यवहारदर्शनात् न हि कश्चिद विरोध आपतति । उभयीमेव तादृशी व्यवस्थामास्थाय निखिलां वास्तवीं बुद्धि किमपि वस्तु आधिनोति । केवलं प्रधानोपसर्जनतया कदाचित् किञ्चिद् विवक्ष्यते तस्मात् पुद्गलानित्यत्त्वाऽनित्यत्वयोरुभयोरपि एकमास्पदं भवन्ति इति न किञ्चित् कस्यचिद् बाध्यते इति भावः । नित्यता लोक की है । न उसकी आदि है, न अन्त है । उसके प्रवाह का कभी विच्छेद नहीं होता - वह अपने स्वभाव का कभी परित्याग भी नहीं करता । विविध प्रकार के परिणमनों को उत्पन्न करने की शक्ति से युक्त है । यह अनादि - अनन्तनित्यता है । दूसरे प्रकार की नित्यता श्रुतोपदेश की है । श्रुत का उपदेश उत्पत्तिमान् और प्रलय वान् है, फिर भी वह अवस्थित रहता है । पर्वत, समुद्र, वलय आदि का अवस्थान भी सावधि - नित्यता में परिणमित है । से इसी प्रकार अनित्यत्व भी दो प्रकार का है - ( १ ) परिणामानित्यत्व और (२) उपरमानित्यत्व । मृत्तिका का पिण्ड स्वभाव से और प्रयत्न से अपनी पूर्व - अवस्था को त्याग कर नवीन अवस्था को प्रतिममय प्राप्त होता रहता है । इस प्रकार की अनित्यता कों परिणामा नित्यता कहते हैं । उपरमानित्यत्व भवोच्छेद- संसार का अन्त आना है। चारों गतियों में परिभ्रमण का अन्त होने पर पर्यन्तवर्त्ती जो अवस्थान है, वह उपरमानित्यत्व है अत्यन्ताभाववर्त्ती नहीं है । इनमें से परिणामानित्यत्व की दृष्टि पुद्गलदव्य अनित्य कहलाता है और अपने पुद्गलपन का त्याग न करने के कारण नित्य भी माना जाता है । दोनों प्रकार का व्यवहार देखा जाता है अतः कोई विरोध - नहीं आता । प्रत्येक वस्तु में उक्त दोनों ही प्रकार की अर्थात् नित्यता और अनित्यता की व्यवस्था है, और इसी प्रकार की प्रतीति होती है। हाँ कभी अनित्यता को गौण करके नित्यता की प्रधानता से विवक्षा की जाती है और कभी नित्यता की प्रधानता करके अनित्यता को गौण कर दिया जाता है । इस प्रकार पुद्गल में अनित्यता और नित्यता दोनों ही धर्म रहते हैं । ऐसा मानने में किंचित् भी बाधा नहीं है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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