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________________ १७० तत्त्वार्यसत्रे संघीभूतशुष्कतृपाराशिवहिवत् । यथाहि-संघीभूतस्यैकत्रितस्य शुष्कस्यापि तृणपुञ्जस्याऽवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरकालेन दाहो भवति, तस्यैव पुनः शिथिलविकीर्णोपचितस्य समन्तात् युगपदेव सन्दीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याऽऽशु दाहो जायते शीघ्रमेव सर्व भस्मसात् सम्पद्यते, । एवमेवायुषोऽप्यनुभवो बोध्यः । तथाच-यदा-ऽऽयुदृढसंहतमतिघनतया बन्धनकाले एव परिणामापादितं भवति पवनसंसर्गवत् तत् क्रमेण वेद्यमानं चिरकालेन वेद्यते, यत्तु आयुष्कं कर्मबन्धकाले एव शिथिलमाबद्धं तद् विप्रमाणविकीर्णतृणपुञ्जदाहवदपवाऽऽशु वेद्यते इति ॥ ४१ ॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक शाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल-व्रतिविरदीपिका-नियुक्ति टीकाद्वयोपेतस्य तत्त्वार्थसूत्रस्य प्रथममध्ययनं समाप्तम् जैसे एकत्र किये हुए सूखे घाप के ढेर को एक ओर से जलाया जाय तो क्रम से जलता हुआ वह ढेर चिरकाल में भस्म होता है और वही ढेर यदि पोला हो और सब तरफ से एक साथ आग लगाई जाय और तेज हवा चल रही हो जल्दी जल जाता है और शीघ्र ही भस्म हो जाता है। आयु के भोग के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। जो आयु बन्ध के समय अत्यन्त गाढ़ रूप में निकाचित रूप में बाँधा जाता है, वह धीरे-धीरे चिरकाल में भोगा जाता है, किन्तु जो आयु कर्मबन्ध के समय ही शिथिल रूप में वाँधा गया है, वह शिथिल घास के ढेर के दाह के समान अपवर्तित होकर जल्दी वेदन किया जा सकता है । ॥४१॥ जैनशास्त्राचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज विरचित तत्वार्थ सूत्रकी दीपिका एवं नियुक्ति नामक व्याख्या का प्रथम अध्ययन समाप्त ॥१॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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