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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. ३९ नारकसम्मूच्छिमेषु नपुंसकवेदनिरूपणम् १५९ "नारगे समुच्छिमे य नपुंसगवेए' इति । नारकः-रत्नप्रभादिसप्तमपृथिवीषु नरकभूमिषु नारकाः सर्वः सम्मछिमश्च पूर्वोक्तस्वरूपो जीवः केवलं नपुंसकवेद एव भवति । न पुंस्त्ववेदः, नापि-स्त्रीवेदः, । तथा च-सर्वे नैरयिकाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः केचन-तिर्यङ्मनुष्याश्च सम्मूर्छिमाः नपुंसकवेदवेदिन एवाऽवसेयाः । यतो हि तेषां नारकाणां सम्मूर्छनजन्मशालिनाञ्च चारित्रमोहनीयविशेषनोकषायवेदनीयहास्यादिनवविधान्तर्गतत्रिवेदेषु-एकं नपुंसकवेदनीयमेवाऽशुभगतिनामकर्मापेक्षं पूर्वबद्धनिकाचितमुदितं भवति, न तु-पुंस्त्वस्त्रीत्ववेदनीये तेषामुदिते भवतः पूर्वभवे-पुंस्त्वस्त्रीत्ववेदशुभमोहनीयकर्मणोरबद्धत्वात् इति भावः ॥३९॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-नारकाः-नरकेषु भवाः सप्तपृथिवीषु वर्तमाना नैरयिकाः सर्वे सम्मूच्छिनश्च सम्मूर्च्छन-सम्मूर्छः सम्मूर्छनजन्म येषामस्ति ते सम्मूर्छिनः सम्मूर्च्छनजन्मशालिनश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः केवच-तिर्यङ्मनुष्याश्च भवन्ति । सर्वे-एते नपुंसकान्येव नपुंसकवेदिन एवाऽवगन्तव्या, नो स्त्रियः, नो वा पुमांसः, न ते स्त्रीवेदवेदिनः-न वा–पुरुषवेदवेदिनो भवन्ति-इत्यर्थः । मूलसूत्रार्थ---'नारगे संम्मुच्छिमे य' इत्यादि' ॥३९॥ नारक और संमूर्छिम जीव नपुंसकवेदी ही होते हैं ॥३९।। तत्त्वार्थदीपिका—पूर्वसूत्र में चारों निकायों के देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद का विधान किया गया, अब नारक और संमूर्छिम जीवों में केवल नपुंसकवेद ही होता है, यह प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों में रहने वाले नारक जीव और पूर्वोक्त स्वरूप वाले संमूर्छिम जीव सिर्फ नपुंसकवेदी ही होते हैं। उनमें न पुरुषवेद होता है, न स्त्रीवेद । इस प्रकार सभी नारक, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कोई-कोई पंचेन्द्रिय मनुष्य तथा तिर्यंच संमूर्छिम होते हैं और उन सब को नपुंसकवेदी ही समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि नारकों और संमूर्छिमों ने तीन वेदों में से केवल नपुंसकवेद ही पूर्वकाल में निकाचित रूप में बाँधा होता है और उसी का उनको उदय होता है । उन्होंने पूर्वकाल में पुरुषवेदमोहनीय और स्त्रीवेद मोहनीय कर्म, जो शुभ हैं, नहीं बाँधे होते ॥३९॥ तत्वार्थनियुक्ति-सात नरकभूमियों में रहे हुए नारक जीव और सभी संमूर्छिम जीव अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कोई-कोई पंचेन्द्रिय तियेच तथा मनुष्य नपुंसक ही होते हैं । न वे स्त्रीवेदी होते हैं, न पुरुषवेदी होते हैं। क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म का भेद जो नोकषायवेदनीय है, उसके हास्यादि नौ भेदों में से जो तीन वेद हैं उनमें से एक नपुंसकवेद का ही उदय होता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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