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________________ तत्त्वार्थसूत्रे उत्पन्नलब्धीनां मनुष्यतिरश्चां कार्मणतैजसौदारिकवैक्रियाणि युगपच्चत्वारि भवन्ति । चतुर्दशपूर्वधरममुष्यस्याऽनुत्पन्नवैक्रियलब्धेः कार्मणतैजसौदारिकाहारकाणि युगपद्भवन्ति । पञ्चशरीराणि तु न युगपद् भवन्ति कदापि नापि - वैक्रियाहार के युगपद् भवतः लब्धिद्वयाऽभावात् इति भावः ||३५|| मूलसूत्रम् - "कम्मए सव्वेसिं-" ॥३६॥ छाया - कार्मणं सर्वेषाम् ||३६|| तत्वार्थदीपिका - पूर्वं तावत् - आहारकशरीरस्वरूपं प्ररूपितम् सम्प्रत्यन्तिमं कार्मण शरीरस्वरूपं प्ररूपयितुमाह - 'कम्मए सव्वेसिं' इति कार्मणम् - कर्मणा निर्मितम् कार्मणं कार्यं वा, कार्मणं शरीरं सर्वेषामौदारिकादिशरीराणां निबन्धनं कारणं भवति यदा - जीवः एकं शरीरं विहाय - उत्तरशरीरं प्रति गच्छति, तदा - कार्मणशरीरेण सह तस्य योगः - सङ्गतिर्भवति तथाच कार्मणशरीराधारेण जीवो गत्यन्तरं गच्छति । १५२ अत एव सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मणं शरीरं बोध्यम् एवञ्च - ज्ञानावरणादिकर्मणो विकाररूपं - कर्ममयं वा कार्मणं शरीरं भवति तस्य ज्ञानावरणादिकर्मव्यतिरिक्तं कारणं न वर्तते कार्मणस्य कर्ममात्रतया कर्मस्वभाववत्वात् सर्वेषां च संसारिणां जीवानां कार्मणं शरीरं भवति. विग्रहगतौ खलु - जीवानां कार्मणशरीरकृत एव वाङ्मनः कायवर्गणा निमित्तक आत्ममपरिस्पन्दनरूपो योगो भवति ॥३६॥ हैं । इस प्रकार अधिक से अधिक एक जीव में चार ही शरीर का संभव हैं, पाँच का नहीं, क्यों कि जब वैकिय शरीर होता है तो आहारक शरीर नहीं हो सकता और आहारक शरीर होता है तो वैक्रिय शरीर नहीं हो सकता । इसका भी कारण यह है कि एक साथ ये दोनों लब्धियाँ नहीं होती हैं ||३५|| मूलसूत्रार्थ – “कम्मए सव्वेसिं' सूत्र ॥३६॥ कार्मण शरीर सब शरीरों का कारण है ||३६|| तत्त्वार्थदीपिका - पहले आहारकशरीर का निरूपण किया गया है, अब अन्तिम कार्मण शरीर का निरूपण किया जाता हैं कर्म के द्वारा निर्मित अथवा कर्म का कार्य कार्मण शरीर औदारिक आदि सब शरीरों का कारण है । जीव जब एक शरीर का त्याग करके भावी शरीर को प्राप्त करने के लिए गमन करता है अर्थात् विग्रहगति में होता है, उस समय कार्मण शरीर के द्वारा ही उसका योग अर्थात् प्रयत्न होता है । कार्मण शरीर के द्वारा होने बाले प्रयत्न से ही वह दूसरी गति में जाता है । इस प्रकार कार्मण शरीर अन्य समस्त शरीरों को उत्पन्न करने के लिए बीज के समान है । वह ज्ञानावरण आदि कर्मों के सिवाय उसका अलग कोई कारण नहीं हैं । वस्तुतः कार्मण शरीर कर्मस्वरूप ही है । यह शरीर समस्त संसारी जीवों को प्राप्त होता है । योग का अर्थ है - वचन, मन और काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में होने वाला परिस्पन्दन अर्थात् हलन चलन ॥३६॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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