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________________ अव ५. २० दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. ३४ तैजसशरीरनिरूपणम् १४१ तानि खलु भदन्त-! शरीराणि किमेकजीवस्पृष्टानि, अनेकजीवस्पृष्टानि ? गौतम ! एकजीवस्पृष्टानि, नाऽनेकजीवस्पृष्टानि, पुरुषः खलु भदन्त ! अन्तरा हस्तेन वा पादेन वा असिना वा प्रभुर्विच्छेत्तुम् ? नायमर्थः समर्थः नैव तत्र शस्त्रं कामति ॥३३॥ मूलसूत्रम्- "तेयगं दुविहं, लद्धिपत्तयं-सहजं च" ॥३४॥ छाया-"तेजसं द्विविधम् , लब्धिप्रत्ययं सहज च" ॥३४॥ तत्वार्थदीपिका—पूर्वसूत्रे--क्रमप्राप्तं वैक्रियशरीरस्वरूपं प्ररूपितम् सम्प्रति प्रसङ्गादागतं तैजसशरीरस्वरूपं प्ररूपयितुमाह-"तेयगं दुविहं, लद्धिपत्तयं-सहजं च" इति । तैजसम् , तेजसा निष्पादितं शरीरं तैजसमुच्यते । तद् द्विविधं भवति । लब्धिप्रत्ययम्-सहजं चेति । तत्र तपोविशेषाद् ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरुच्यते । एवंविघा लब्धिः प्रत्ययः कारणं यस्य तत्लब्धिप्रत्ययमुच्यते । सहजम्-स्वाभाविकमुच्यते । तथाच-निःसरणात्मकम्-अनिस्सरणात्मकं च तैजसं शरीरं द्विविधं भवति । यथा-कश्चिद् यतिरुग्रचारित्रः केनचिद् विराधितः सन् यदाऽत्यन्तक्रुद्धो भवति तदा-तस्य वामभुजतो जीवप्रदेशसहितं तैजसशरीरं बहिर्निर्गच्छति, जाज्वल्य प्रश्न-भगवन् ! उसके वे एक हजार शरीर एक हो जीव से युक्त हैं ? अर्थात् उन हजार शरीरों में एक ही जीव व्याप्त है ? अथवा वे अनेक जीवों से युक्त हैं ? भगवन् ! उन जीवों के अन्तर (बीच के भाग) क्या एक जीव से व्याप्त हैं अथवा अनेक जीवों से व्याप्त हैं ? उत्तर-गौतम एक ही जीव से युक्त हैं, अनेक जीवों से युक्त नहीं हैं। प्रश्न--- भगवन् ! क्या पुरुष अपने हाथ से, पैर से या तलवार से उन अन्तरों का विच्छेद करने में समर्थ है ? उत्तर---- नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता । वहाँ शस्त्र काम नहीं करता ॥३३॥ मूलसूत्रार्थ--'तेयगं दुविहं लद्धिपत्तयं' इत्यादि । सूत्र ॥३४ अर्थ-तैजस शरीर दो प्रकार का है-लब्धिप्रत्यय और सहज ॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में क्रमप्राप्त वैक्रिय शरीर का स्वरूप बतलाया गया, अब प्रसंग से प्राप्त तैजस शरीर का स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं तैजस अर्थात् तेज से उत्पन्न किया हुआ शरीर दो प्रकार का है-लब्धिप्रत्यय और सहज । _ विशिष्ट प्रकार की तपस्या से ऋद्धि की प्राप्ति होना लब्धि है । यह लब्धि जिस शरीर का कारण हो वह शरीर लब्धिप्रत्यय कहलाता है । सहज का मतलब है स्वाभाविक । इस प्रकार तैजस शरीर के दो भेद हैं-निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक । कोई उग्र चारित्र वाला साधु किसी के द्वारा विराधित (अपमानित या आहत) होने पर जब कुपित होता है तब उसके वायें भुजा से, तैजस शरीर जीव के प्रदेशों के साथ बाहर निकलता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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