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________________ तत्त्वार्यसूत्रे तत्त्वार्थनिर्युक्तिः - पूर्वं तावत् - शरीरं द्विधं प्रज्ञप्तम् औपपातिकम् - लब्धिकं च । तत्र - प्रथमंतावदवयवार्थमाह-विक्रिया विकारो विकृतिर्विकरण मित्येते शब्दाः समानार्थकाः, विविधा - विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया उच्यते, तस्यां भवं वैक्रियम् । प्रकृतेरन्यत्वरूपो विकारः, विचित्रा कृतिर्विकृतिः, विविध क्रियते इति विकरणम्, तत्र यद् विविधमनेप्रकारं क्रियते तद् वैक्रियमुच्यते । तद्यथा — विक्रियाकर्तुः समासादितवैक्रियलब्धेरिच्छानुसारात् एकं भूत्वा यदनेकं भवति, अनेक भूत्वा एकं भवति, अणुभूत्वा महद्भवति, महच्च भूत्वा - अणुभवति, एकाकृतिभूत्वा - अनेकाकृति भवति, अनेकाकृतिभूत्वा - एका कृतिभवति । दृश्यं भूत्वा - अदृश्यं भवति, अदृश्यं भूत्वा - दृश्यं भवति, भूमिचरं भूत्वा - खेचरं भवति, खेचरं भूत्वा भूमिचरं भवति, स्खलद्गति भूत्वा अस्खलद्गति भवति प्रतिघातिभूत्वा अप्रतिघाति भवति, अप्रतिघातिभूत्वा - प्रतिघाति भवति, युगपच्चैतान् भावान् अनुभवति वैक्रियं शरीरम् नैवं तदितराणि शरीराणि युगपद् एतान् भावाननुभवन्ति । अत्र स्थूलत्वात् - प्रतिहननशीलं भूत्वा सूक्ष्मावस्थानं सम्प्राप्तं सदप्रतिघाति भवति । उक्तञ्च—भगवतीसूत्रे तृतीयशतके पञ्चमोदेशके - 'अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं जाव संद्माणिया रूवं वा विउव्वित्तए ? १३८ । तत्त्वार्थनिर्युक्ति—पहले वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं- औपपातिक और लब्धिप्रत्यय । पहले अवयवार्थ कहते हैं - विक्रया, विकार, विकृति, विकरण, ये सब एक समानार्थक हैं । विविध प्रकार की अथवा विशिष्ट प्रकार की क्रिया को विक्रिया कहते हैं, उसमें जो उत्पन्न हो वह वैक्रिय । जिस वस्तु की जो प्रकृति ( मूल स्वभाव) है, उसमें भिन्नता आना विकार है विचित्र कृति को विकृति कहते हैं । विविध प्रकार से करना विकरण है । जो शरीर बिविध - अनेक प्रकार का बनाया जाय वह वैक्रिय कहलाता है । विक्रियालब्धि जिसे प्राप्त होती हैं, उसकी इच्छा के अनुसार जो शरीर एक होकर अनेक हो जाता है, अनेक होकर एक हो जाता है, छोटे से बड़ा और बड़े से छोटा हो जाता है, एक आकृति वाला होकर अनेक आकृति वाला हो जाता है, अनेकाकृति से एकाकृति हो जाता है, दृश्य होकर अदृश्य और अदृश्य होकर दृश्य हो जाता है भूमिचर हो कर खेचर ( आकाश गामी) और खेचर हो कर भूमिचर हो जाता है, सबलित गति वाला होकर असबलित गति वाला हो जाता है, प्रतिघाती होकर अप्रतिघाति हो जाता है और अप्रतिघाती होकर प्रतिघाती हो जाता है; और इन सब भावों का जो एक साथ अनुभव करता है, वह वैक्रिय शरीर है । वैक्रिय के अतिरिक्त अन्य शरीर एक साथ इन भावों का अनुभव नहीं करते, पहले स्थूल होने के कारण प्रतीघाती होता है फ सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त करके अप्रतिघाती हो जाता है । भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के पाँचवें उद्देशक में कहा है શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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