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________________ १३६ तत्वार्थस्त्रे मूलसूत्रम् बेउव्वियं दुविहं, उपपाइयं-लदिपत्तयं च-" ॥३३॥ छाया वैक्रिय द्विविधम् औपपतिकं लब्धिप्रत्ययं च-" ॥३३|| तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-औपपातिकशरीरं प्ररूपितम् सम्प्रति-वैक्रियं शरीरं प्ररूपयितुमाह -"येउव्वियं दुविहम्, उक्वाइयं-लद्धिपत्तयं च-" वैक्रिय-विक्रियया निर्मितं शरीरम् बैक्रियं विकुर्वणतया निष्पादितं द्विविधं भवति । तद्यथा-औपपातिकम् , लब्धिप्रत्ययञ्च, तत्रोपपाते भरमौपपातिकम् । लब्धिप्रत्ययञ्च-लब्धिः प्रत्ययो हेतुर्यस्य तत्-लब्धिप्रत्ययम् , तपो विशेषाद् ऋद्धिप्राप्तिः खलु लब्धिरुच्यते ।। तथाच-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं चेत्येवं वैक्रियशरीरं द्विप्रकारकं भवति । वक्ष्यमाणतैजसशरीरमपि लब्धिप्रत्ययं भवतीति वक्ष्यते । लब्धिप्रत्ययञ्च-वैक्रियशरीरं षष्ठगुणस्थानवर्तिनः कस्यचिद्भवतीति बोध्यम् । उत्तरवैक्रियशरीरस्थितिश्च जघन्येनोत्कृष्टेन चाऽन्तर्मुहूर्त भवति, तीर्थकृज्जन्मादौ च बहुकालसाध्यं तत्तत् सम्बन्धिकर्मकर्तुं घटिकाद्वयात्-घटिकाद्वयात् मुहूर्तरूपाद् उप[परिअन्यद् अन्यद् बैक्रियं शरीरं देवादय उत्पादयन्ति । छिन्नकमलिनीकन्दोभयपार्श्वलग्नतन्तुवद् उत्तरशरीरेषु आत्मप्रदेशान् अन्तर्मुहूर्ते पूरयन्ति च तेनोत्तरवैक्रियशरीरं यथेष्टकालं तिष्ठति । अत्रोपपातजन्म-उपपातशब्देन कथ्यते, तस्मिन् उपपात मूलसूत्रार्थ----'वेउब्वियं दुविहं'-- इत्यादि ॥३३॥ वैकिय शरीर दो प्रकार का है-औपपातिक और लब्धिप्रत्यय ॥३३ । तत्त्वार्थदीपिका-- पहले औदारिक शरीर का निरूपण किया गया, अब वैक्रिय शरीर का प्रतिपादन करते हैं वैक्रिय शरीर के दो भेद हैं-औपपातिक और लब्धिप्रत्यय जो शरीर विक्रिया या विडुंबणा से उत्पन्न होता है, उसे वैक्रिय कहते हैं, वह दो प्रकार का है-औपपातिक और लब्धि प्रत्यय । जो उपपातजन्म में हो वह औपपातिक शरीर कहलाता है और जो शरीर लब्धि अर्थात् विशिष्ट तपस्या आदि से उत्पन्न ऋद्भिविशेष से पैदा हो वह लब्धिप्रत्यय कहलाता है। ___ लब्धिपव्यय वैक्रिय शरीर किसी-किसी मनुष्य और तिर्यञ्चों को होता है । उस उत्तर वैकिय शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । तीर्थकरके जन्म आदि अवसरों पर देवों को ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो बहुत काल में सम्पन्न हो, तब उन कार्यों को करने के लिए वे वैक्रिय शरीर बनाते हैं। ___कमलिनी के कन्द को तोड़ दिया जाय तो उसके टुकड़ो में जैसे तन्तु लगे होते हैं और उन तन्तुओं के द्वारा वे टुकडे आपस में जुडे रहते हैं, उसी प्रकार उत्तर शरीरो में अन्तर्मुहूर्त में वे आत्मप्रदेशों को परित करते हैं ऐसा करने से उत्तरवैक्रिय शरीर यथेष्ट समय तक टिका रहता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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