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________________ १३४ तत्त्वार्यसूत्रे mammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भवति न तु औदारिकमेवेत्यवधारणम् । तैजस-कार्मणशरीरद्वयमपि तेषां सम्भवति, लब्धिप्रत्ययवैक्रियाहारकयोर्वा गर्भजन्मनां प्राणिनामुत्तरकालभावित्वात् । औदारिकं शरीरं जघन्येनाऽङ्गुलाऽसंख्येयभागप्रमाणमुत्कृष्टतो योजनसहस्रप्रमाणञ्चेति । तत्र-उदारम् , उद्गमः उद्गमनं प्रादुर्भावः यतउत्पादनात् प्रभृति अनुसमयमुद्गच्छति-वर्धतेजीर्यते-शीर्यते-परिणमति इत्युदारम्, 'उदारमेवौदारिकम् वयःपरिणामेनोपचीयमानतया वर्धनं भवति । वयोहानिप्राप्त्या जीर्णनं भवति, शिथिलसन्धिबन्धनेन लम्बमानधर्ममण्डलेन च शीर्णता भवति । समन्तात्-जराभारविधुरिततया-ऽऽनमति, परिपेलवग्रहणशक्तीन्द्रियग्रामं वलीवलयलेखा विचित्रम् अन्यदेवोपजायते इति परिणमनमपि तस्य प्रत्यक्षसिद्धम् यथा चेदमौदारिकमेवं विधाऽनेकविशेषणविशिष्टं वर्तते न तथा-वैक्रियाहारक-तैजसकार्मणानि भवन्ति । वैक्रियस्य जरसा-विवृद्धयावा प्रतिक्षणं योगो नास्ति यथावस्थितत्वात् । एवमाहारकस्यापि, तैजस-कार्मणयोस्तु-सुतरां न तत्समस्ति तस्याङ्गोपाङ्गाद्यनिवृत्तेः । कि उनको औदारिक शरीर ही होता है; क्योंकि उन्हें तैजस और कार्मण शरीर भी प्राप्त होता है । इनके अतिरिक्त गर्भ जन्म वालों को आगे चलकर लब्धिजनित वैक्रिय और आहारक शरीर भी हो सकते हैं । औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन से कुछ अधिक की होती है। उदार अर्थात् उद्गम, उद्गमन का अर्थ है प्रादुर्भाव जो शरीर उत्पत्ति सेले कर प्रत्येक समय उद्गम करता है अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होता रहता है, फिर जीर्ण और शीर्ण होता है, वह औदारिक शरीर कहलाता है । यह शरीर वय के परिणमन के अनुसार उपचित-पुष्ट होता जाता है और वय की हानि होने पर जीर्ण होता है । इसके जोड़ जब ढीले पड़ जाते हैं और चमड़ी लटकने लगती है तो शीर्ण भी होता है। जरा के भार के कारण झुक जाता है । इन्द्रियों की विषय को ग्रहण करने की शक्ति क्षीण-क्षीणतर होने लगती है और झुर्रियाँ पड़ जाती हैं । इस प्रकार धीरे-धीरे यह कुछ का कुछ हो जाता है ! पहचाना भी नहीं जा सकता कि यह वही सुन्दर और सुपुष्ट शरीर है; इस प्रकार का परिणमन प्रत्यक्ष से सिद्ध है । इस औदारिक शरीर में ये जो विशेषता हैं, वे वैक्रिय, आहारक, तैजस या कार्मण शरीर में नहीं है। वैक्रिय शरीर आदि से अन्त तक ज्यों का त्यों रहता है। उसमें औदारिक शरीर की भाँति क्षण-क्षण में परिवर्तन नहीं होता । न जरा के कारण क्षीण होता है और न विशिष्ट प्रयोगों से वृद्धि को ही प्राप्त होता है । आहारक शरीर में भी ऐसा परिवर्तन नहीं होता । तैजस और कार्मण शरीर में तो उसका संभव ही नहीं है, क्यों कि उनमें अंगोपांगों का निर्माण नहीं होता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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