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________________ १२० तत्त्वार्थसूत्रे वस्तुतस्तु-कर्मभिर्निष्पन्नं-कर्मसु भवं कर्मसु जातं-कर्मैव वा कार्मणमुच्यते । एतेषां च; औदारिकादीनां शरीराणां ग्रहणप्रायोग्यानि न सर्वपुद्गलद्रव्याणि भवन्ति अपितु व्यवर्गणाप्ररूपणक्रमेण कानिचिदेव पुद्गलद्रव्याणि भवन्ति । तद्यथा परमाणूनामेका वर्गणा राशिरूपा भवति, द्विप्रादेशिकानामपि स्कन्धानामेका वर्गणा भवति । एवम् एकपरमाणुवृद्धया संख्येयप्रादेशिकस्कन्धानां संख्येयवर्गणाः । असंख्येयप्रादेशिकस्कन्धानामसंख्येयवर्गणा भवन्ति ।। अनन्तप्रदेशिकस्कन्धानामनन्ता वर्गणा भवन्ति । स्वल्पपुद्गलप्रयोगत्वाद् अयोग्याः समुल्लध्या अनन्तएवौदारिकशरीरयोग्या वर्गणा भवन्ति । तस्यैव पुनः औदारिकशरीरस्याऽग्रहणयोग्याः ततोऽनन्ता, अतिबहुपुद्गलात्मकत्वात् । एवम्-एकैकपुद्गलप्रक्षेपपरिवृद्धया वैक्रियाहारकतैजसमाणप्राणापानमनः कार्मणानामेकैकस्याऽयोग्याः [ योग्याः ] अयोग्याश्चेति द्रव्यवर्गणत्रयमवसेयम् । तत्र-प्रथमा द्रव्यवर्गणाऽल्पत्वाद् अयोग्या अन्तिमा-पुनर्बहुत्वाद् अयोग्या मध्यमा पुनस्तदनुरूपत्वाद् योग्याचेति सर्वत्र विभावनीयम् । अत्राऽप्रस्तुतमपि भाषा प्राणापानमनोग्रहणम्-कार्मण बीज के समान समस्त कर्मों का जनक है । यह शरीरनामकर्म की उत्तरप्रकृति है अर्थात् शरीर नामकर्म का एक उपभेद है, अतः आठ कर्मो से कथंचित् भिन्न है। कर्म ही कार्मण कहलाता है। वास्तव में तो कर्मों के द्वारा निष्पन्न, कर्मों में होने वाला अथवा कर्म ही कार्मण शरीर कहलाता है। औदारीक आदि शरीर चाहे जिन पुद्गलों से नहीं बनते, बल्कि इनके योग्य पुद्गलों की वर्गणा (राशि) अलग-अलग होती है। औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से औदारिक शरीर वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से वैकिय शरीर आहारक वर्गणा के पुद्गलों से अहारकशरीर तैजसवर्गणा के पुद्गलों से तैजसशरीर और कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से कार्मणशरीर का निर्माण होता है । पुद्गलों के समूह को वर्गणा कहते हैं । इन समूहो या वर्गणाओं का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से समस्त परमाणुओं की एक वर्गणा अर्थात् राशि है । द्विप्रदेशी स्कंधों की एक वर्गणा है । इसी प्रकार एक-एक परमाणु की वृद्धि करके संख्यात वर्गणाएँ हैं, असंख्यात प्रदेशी स्कंधों की असंख्यात वर्गणाएँ हैं । अनन्तप्रदेशी स्कंधों की अनन्त वर्गणाएँ होती हैं। ___ अल्प पुद्गलो वाली कुछ ऐसी बर्गणाएँ होती हैं जिनसे औदारिक शरीर का निर्माण नहीं हो सकता अर्थात् वे औदारिक शरीर के अयोग्य होती हैं। उनसे आगे की अनन्त वर्गणाएँ औदारिकशरीर के योग्य होती हैं । इन योग्य वर्गणाओं से आगे की उनसे भी अनन्तगुणी ऐसी वर्गणाएँ हैं जो (अधिक द्रव्योंवाली होने के कारण) औदारिक शरीर के योग्य नहीं होती। इस प्रकार औदारिक वर्गणाएँ तीन प्रकार की हैं अल्प पुद्गलों वाली होने के कारण अयोग्य । उचित परिणाम वाली होने से योग्य और बहुपुद्गलोंवाली होने के कारण अयोग्य इसी प्रकार यता हा શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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