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________________ तत्त्वार्थसूत्रे तत्र-बाह्यपुद्गलोपमर्दनलक्षणं संमूर्छनजन्म तावत्-काष्ठादिषु कृम्यादीनां प्रसिद्धम् । काष्ठत्वचा पक्वफलादिषु कृम्यादयो जन्तवः समुपजायमानास्तानेव काष्ठत्वक् फलवर्तिनः पुद्गलान् शरीरी कुर्वन्तः उत्पद्यन्ते । एवं जीवद्गोमहिषमनुष्यादिशरीरेषु प्रादुर्भवन्तः कृम्यादयो जीवास्तानेव जीवद्गोमहिषादिशरीरावयवान् उपादाय स्वशरीरतया परिणतिमासादयन्ति । इत्याध्यात्मिकपुद्गलोपमर्दनलक्षणमेतज्जन्मप्रसिद्धम् । प्रायशस्तत्र गर्भाधुपलब्धिदर्शनात् । एवमुपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रनिमित्तं जन्म उपपातजन्मपदेन व्यपदिश्यते, यथा-प्रच्छदपटस्योपरिष्टात् देवदूष्यस्याधस्तादपान्तराले वर्तमानान् पुद्गलान् वैक्रियशरीरतया समुपाददानो देवः समुद्भवति । इदञ्च-पुर्वद्वयलक्षणतो भिन्नलक्षणम् देवोऽसौ न हि प्रच्छदपटदेवदूष्यपुद्गलानेव शरीरी करोति न वा-शुक्रशोणितादि पुद्गलानाददानो जायते । तस्मात्-अस्योपपातरूपजन्मनः प्रतिविशिष्टक्षेत्रप्राप्तिरेव निमित्तं भवति । एवम्--नारकाणां नरकक्षेत्रस्थितातिसंकटमुखनिष्कुटागवाक्षसदृशी विविधाकाशकुम्भी भवति । तत्र वैक्रियपुद्गलानादाय संगृह्यमाणा वज्रमयनरकतले जलमध्यक्षिप्तपाषाणवत् महता वेगेन परिपतन्ति । उपपधन्ते इत्यर्थः एवमेतत् त्रिविधं जन्म जीवानामवगन्तव्यम् । अत्रेदं बोध्यम् सर्वसंसारिणां प्राणिनां स्वजीवितव्यवच्छेदविशिष्टकाले प्रागुपात्तौदारिकवैक्रियशरीरपरिक्षयलक्षणे भवक्षये सति यस्मिन् क्षेत्रे जीवः पुनरुत्पत्स्यते तदुपपातक्षेत्रं स्वकर्मवशात् पर्वोपात्तकर्मपरिणति सामर्थ्यादेव, न तु-ईश्वरादिप्रेरणया प्राप्नोति, प्राणान् परित्यज्य भवान्तरमासादयति, तदा-सर्वन्तस्य ज्ञानावरणादिकर्माण्येव निष्पादयन्ति ऋजु वा-वक्रं वा उत्पत्तिस्थानं गन्तव्यमनेन वा मार्गेण गन्तव्यम् अस्यां वा वेलायां प्रवर्तितव्यम् अस्मिन् योन्यन्तरे मया इसी प्रकार अपने उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचने मात्र से जो जन्म होजाता है, वह उपपात जन्म कहलाता है । जैसे देव बिछे हुए वस्त्र के ऊपर और देवदूष्य के नीचे-दोनों के बीच में विद्यमान पुद्गलों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण करता हुआ उत्पन्न होता है। यह जन्म पहले कहे गये दोनों जन्मों के लक्षण से विलक्षण है, क्योंकि इसका कारण न तो नीचे या ऊपर के वस्त्र के पुद्गल हैं और न शुक्र-शोणित के पुद्गल ही । इस प्रकार इस जन्म का कारण अमुक स्थान में पहुँचता ही है। नारक जीव नरकभूमियों में स्थित कुंभी में उत्पन्न होते हैं। कुंभी अत्यन्त सँकड़े मुख की गवाक्ष जैसी होती है। उनके आकार भी नाना प्रकार के होते हैं । नारक जीव वहाँ के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करते हुए वज्रमय नरकतल में जल के बीच डाले हुए पाषाण की भाँति, बड़े वेग के साथ जाकर पड़ते हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं। यह जीवों का तीन प्रकार का जन्म है । यहाँ यह बात समझ लेना चाहिए कि-संसारी जीवों के वर्तमान जीवन का जब अन्त होता है और पूर्वगृहीत औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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