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________________ तत्त्वार्यसूत्रे फलवर्तिनः पुद्गलान् शरीरीकुर्वन्तः संजायन्ते । एवं-जीवद्गो-महिष-मनुष्यादिशरीरेषु उत्पद्यमानाः कृम्यादयो जीवास्तानेव जीवद्गोमहिषादिशरीरावयवान् समादाय स्वशरीरत्वेन परिणतिं प्राप्नुवन्ति । एवम् -- उपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रहेतुकं जन्म उपपातकजन्म व्यपदिश्यते, यथा-प्रच्छदपटस्योपरिष्टात् देवदूष्यस्याऽधस्ताद् अन्तराले विद्यमानान् पुद्गलान् वैक्रियशरीरतया गृह्णन् देवः सपुद्भवति । इदञ्च–पूवोक्तजन्मद्वयलक्षणतो भिन्नमेव लक्षणं देवोऽसौ नहि प्रच्छदपटदेवदूष्यपुद्गलानेव शरीरी करोति । नापि शुक्रशोणितादि पुद्गलानुपादाय संजायते । तस्मात्-अस्योपपातरूपजन्मनः प्रतिविशिष्टक्षेत्रप्राप्तिरेव हेतुर्भवतीति भावः । एवं नारकाणामपि बोध्यम् ॥२८॥ तीनों लोकों में, ऊपर, नीचे और तिर्छ शरीर का सब ओर से बढ़ना अर्थात् अवयवों की रचना होना सम्मूर्च्छन जन्म है । स्त्री के उदर में शुक्र और शोणित का मिश्रण होना गर्भ कहलाता है । सम्मूर्छन जन्म उत्पत्तिक्षेत्र में रहे हुए पुद्गल समूह को ग्रहण किये बिना नहीं होता है । काष्ट आदि में जो कीड़े वगैरह उत्पन्न हो जाते हैं उनका संमूर्च्छन जन्म कहलाता है। काष्टत्वचा तथा पके हुए फल आदि में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जन्तु उस काष्टत्वचा या फल आदि के पुद्गलों को ही अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । इसी प्रकार जीवित गौ, भैंस, मनुष्य आदि के शरीर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जीव उन्हीं गाय भैस आदि के शरीर के अवयवों को ग्रहण करके अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। इसी प्रकार उपपात क्षेत्र में पहुँचना ही जिस जन्म का कारण हो वह उपपात जन्म कहलाता है। बिछे हुए वस्त्र के ऊपर और देवदूष्य के नीचे-बीच में विद्यमान पुद्गलों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण करके देव उत्पन्न होता है । यह जन्म पूर्वोक्त दोनों प्रकार के जन्मों से बिलक्षण है । यह न तो शुक्र-शोणित आदि से होता है और न देवदूष्य और बिछे वस्त्र के पुद्गलों से । अतएव प्रतिनियत उपपातक्षेत्र में प्राप्त होना ही इस जन्म का कारण है । यह जन्म देवों और नारकों का होता है ॥२८॥ तत्वार्थनियुक्ति—पहले बतलाया जा चुका है कि पूर्वग्रहीत औदारिक या वैक्रिय शरीर का क्षय होने पर संसारी जीव ऋजुगति या वक्रगति करके परभव सम्बन्धी उत्पत्ति क्षेत्र में जाता है । किन्तु वहाँ जाकर किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह नहीं बतलाया गया है, अतः अब इसका कथन किया जाता हैं जन्म तीन प्रकार का होता है-गर्भ, सम्मूर्छन और उपपात । स्त्री की योनि में इकठे हुए शुक्र और शोणित को जीव ग्रहण करता है और माता के द्वारा मुक्त आहार के रससे पुष्ट होता શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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