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________________ तत्त्वार्थ सूत्रे अनाहारकतया संग्रहसम्भवात् । वस्तुतस्तु पञ्च समयायां विग्रहगतौ श्रीन् वा समयान् अनाहारको भवति इत्यभिप्रायेण समयत्रयमुक्तम् अथ पञ्चसमयायां विग्रहगतौ न कश्चिदुपपद्यते इतिचेत् अत्रोच्यते पञ्चसमयाया अपि विग्रहगतेः प्रमाणसिद्धतया तत्रापि - कस्यचिज्जीवस्योत्पत्तिसम्भवात् । एतेनाऽन्तर्मुहूर्त्ताऽर्थं शैलेश्यवस्थायाम नाहारकतया अन्तर्मुहूर्तार्धमपि अनाहारकत्वं कथं नोक्तमित्यपास्तम् । विग्रहगतेरेव प्रस्तुतत्वेन शैलेश्यवस्थाया अप्रस्तावात् तत्समयानाहारकत्वस्य ग्रहणायुक्तत्वात् । अथ किमाहारकविशेषं स्वीकृत्याऽनाहारकत्वमुच्यते -? आहोस्वित्- सर्वाहारप्रतिषेध; क्रियते ? 1 अत्रोच्यते - सर्वाहारप्रतिषेधस्यैव प्रस्तुतत्वात् तथाहि - आहारस्तावत् त्रिविधः ओजआहारः १ लोमाहारः २ प्रक्षेपाहारः - ३ च । तत्रौज आहारोऽपर्याप्तकावस्थायाम् । कार्मणशरीरेणोदक निक्षिप्त पात्रवत् पुगलानामादानं सर्वप्रदेशैर्यत् क्रियते जीवेन प्रथमोत्पत्तिकाले योनौ प्रथमकालप्रक्षिप्तेन अपूपेनेव घृतादौ इति, अयञ्चाऽन्तर्मुहूतिको भवति । लोमाहारः पुनः पर्याप्तकावस्था - भृतित्वचया - आभवक्षयात् पुद्गलानामुपादानरूपो बोध्यः । प्रक्षेपाहारस्तु - ओदनादिकवलपाना भ्यवहारलक्षणोsवसेयः कवलाहार इत्यर्थः । तस्माद् विग्रहावस्थायामत्रौकाहारत्रयस्यैव प्रतिषेधः क्रियते भवावस्थायामेव तथाविधाहारत्रितयस्याऽभ्यनुज्ञातत्वात् । संगतत्वात् । १०४ प्रथमान्त्य समयोरन्तर्गतौ च्युत जन्मदेशस्थत्वादाहारकत्वमेवावगन्तव्यम् पूर्वोत्तरशरीरपरित्यागोपादानकाला भेदवर्तित्वात् । कर्मपुलानामादानन्तु - योगकषायहेतुकमन्तर्गतावपि सर्वत्रैव एक या दो समय तक ही जीव अनाहारक रहता है । वे तीन समय तक अनाहाराक रहता है। ऐसा नहीं मानते; किन्तु उन की मान्यता समीचीन नहीं है । इस सूत्र में सामान्य रूप से अनाहार का ही प्रकरण है, अतएव केवली समुद्घात के समय होने वाली अनाहारकता का भी समावेष हो जाता है वास्तव में तो पाँच समयवाली विग्रह गति में जीव तीन समय तक इसमें अनाहारक रहता है, इस अभिप्राय से तीन समय की अनाहारक अवस्था कही गई है । शंका- पाँच समय की विग्रह गति से कोई जीव उत्पन्न ही नहीं होता ? समाधान- पाँच समय की विग्रह गति भी प्रमाण से सिद्ध है, अतः किसी जीव की उससे भी उत्पति का संभव है । शैलेश अवस्था अर्ध अन्तर्मुहूर्त्त तक अनाहारक अवस्था रहती है, ऐसी स्थिति में अ अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक रहना क्यों नहीं कहा ? इस शंका का भी निराकरण इससे हो जाता है कि यहाँ विग्रह गति का ही प्रकरण है और शैलेशी अवस्था का प्रकरण नहीं है अतएव शैलेशी अवस्था में होने वाली अनाहारक अवस्था को यहाँ ग्रहण करना उचित नहीं है । प्रश्न- यहाँ किसी खास आहार की अपेक्षा से अनाहारक कहते है अथवा सम्पूर्ण आहार के निषेध की अपेक्षा से ? उत्तर—यहाँ सम्पूर्ण आहार का निषेध ही प्रस्तुत है । आहार तीन प्रकार का है– (१) શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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