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________________ १०२ तत्त्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थनियुक्तिः--पूर्वसूत्रे साधारणतो जीवानां विग्रहाया गतेर्निरूपणं कृतम् सम्प्रतिसिद्धस्य गतिप्रतिपादयितुमाह--"सिद्धस्स अविग्गहा--" सिद्धस्य-सेधनशक्तियुक्तस्य, सेधनशीलस्य वा सिद्धिगतिगमनशीलस्य पुरुषस्य नियतं सिध्यतः अविग्रहा-ऋज्वी सरला न तु-वक्रा गतिर्भवति । सा च पूर्वप्रयोगादिहेतुचतुष्टय जनिताऽवसेया। तथाचोक्तं भगवतीसूत्रे निःसंगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं बंधणच्छेयणयाए, निरंधणयाए पुचप्पओगेणं अकम्मस्स गई-" इति । छाया—निःसङ्गतया निरङ्गणतया गतिपरिणामेन बन्धनच्छेदनतया निरिन्धनतया पूर्वप्रयोगेण अकर्मणो गतिः इत्यादि । तत्र-निरङ्गणं निर्लेपः निरिन्धनम् इन्धनरहिताग्निज्वाला तस्य भावस्तया इत्यर्थः । तथाच-सिध्यमानजीवस्यैकान्तत-एवाऽविग्रवागतिर्भवतीति भावः । सिध्यमानजीवव्यतिरिक्तस्य तु विग्रहा-अविग्रहा वा गतिर्भवति । उक्तञ्च "उज्जुसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढं एक्कसमएणं अविग्गहेणं गंता सागरोवउत्ते सिज्झिहिइ ,, इति । औपपातिके सिद्धाधिकारे ९३ - सूत्रेऽस्मत्कृ तपीयूषवर्षिण्याम् ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नोऽस्पृशद्गतिः ऊर्ध्वमेकसमयेनाऽविग्रहेण गन्ता साकारोपयुक्तः सेत्स्यति इति ॥२६॥ समय की होती है, सविग्रहा गति दो या तीन समय की होती है, यह पहले कहा जा चुका है।२६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व सूत्र में साधारणतया जीवों की विग्रहगति का निरूपण किया गया, अब सिद्ध जीवों की गति का प्रतिपादन करते हैं--- सिद्ध गति में गमन करने वाले सिद्ध जीव की गति ऋजु-सरल ही होती है, वक्र नहीं। वह गति पूर्वप्रयोग आदि चार कारणों से उत्पन्न होती है । भगवती सूत्र में कहा है...... मुक्त जीव की गति कर्म-नो कर्म का संसर्ग हट जाने के कारण, निर्लेप (बन्धहीन) होने के कारण, जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारण, बन्धनों का छेद होने से, और निरिन्धन (कर्मरूप इन्धन से मुक्त होने के कारण भग. श. ७ उ०१) होने के कारण तथा पूर्वप्रयोग के कारण होती है। तात्पर्य यह है कि सिध्यमान जीव की गति एकान्ततः विग्रह रहित ही होती है । सिध्यमान जीव के सिवाय दूसरे जीवों की गति विग्रह वाली भी होती है और विग्रहरहित भी होती है। औषपातिक सूत्र के सिद्धाधिकार में, ९३ वें सूत्र की हमारी बनाई हुई पीयूष वर्षिणीटीका में कहा है- ऋजु श्रेणी को प्राप्त मुक्तजीव अफुसमाण गति करता हुआ, ऊपर, एक ही समय में बिना विग्रह के, साकारोपयोग से युक्त होकर सिद्ध होता है ॥२६॥ सूत्र-'ति समयं सिया अणाहारगो' ॥२७॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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