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________________ दीपिफानियुक्तिश्च अ० १ सू. २४ जीवस्य विग्रहाविग्रहगतेर्निरूपणम् ९१ तत्त्वार्थनियुक्तिः–पूर्वसूत्रोक्ता जीवानां भवान्तरप्रापिणी गतिः पुद्गलानां वा देशान्तरप्रापिणी गतिः किम्-ऋज्वेव गत्वा विरमति उताहो कृत्वापि वक्रं पुनरुत्पद्यते । इत्याशङ्कायां पुद्गलानां नियमाऽभावेन सिद्धिं गच्छतां जीवानामेकान्तेनैवाऽविग्रहागति भवति, तदन्यजीवान् तु संसारिणां विग्रहाऽविग्रहा वा गतिर्भवतीति प्रतिपादयितुमाह-'जीवगईय दुविहा, विग्गहा अविमगहा य, इति । __सामान्यतो जीवगतिश्च द्विविधा भवति, विग्रहा-वक्रा, अविग्रहा-सरला च । तत्रैकसमयाऽविग्रहा गतिर्भवति, सा चाऽविग्रहागतिः मोक्षगामिनो जीवस्य भवति । विग्रहागतिश्च एकसमया द्विसमया त्रिसमया वा भवति । तत्र-जघन्येन एकसमया उत्कृष्टेन त्रिसमया विग्रहागतिरवगन्तव्या तथा च एकेन्द्रियादिजात्यन्तरसंक्रमणलक्षणगमने स्वजातिसंक्रमणे वा संसारिणो जीवस्य विग्रहवती वक्रा-अविग्रहा चाऽवक्रा गतिर्भवति । ___ तत्र--कदाचिद् वक्रत्वे कदाचिदवक्रत्वे च कारणन्तु-उपपातक्षेत्रस्यानुकूलत्वमेव बोध्यम् । तथाहि-यस्मिन् क्षेत्रे जीवो जन्मग्रहीष्यति, तस्य क्षेत्रस्याऽऽनुकूल्यात् तिर्यगूर्ध्वमधश्च दिक्षु-विदिक्षु च व्यावहारिकीषु म्रियमाणो यावत्यामाकाशश्रेण्यामवगाढो भवति तावत्प्रमाणां श्रेणिमपरित्यजन् प्राक् चतुभ्यो विग्रहेभ्यो विहग्रया गत्या एकविग्रहया-द्विविग्रहया त्रिविग्रहया वा उत्पद्यते, किन्तुनावश्यमयं नियमोऽङ्गीकर्तव्योऽन्तर्गत्या नूनं विग्रहवत्या भवितव्यमिति, अपितु-येषां जीवानां विग्रहवतीगतिस्तेषामुपपातक्षेत्रवशाद् वक्रागति उत्कर्षेण विग्रहत्रययुक्ता भवति इत्येताश्चतस्रो गतके लिए तीन विग्रहवाली गति का आरंभ करना है, उससे अधिक विग्रह वाली गति नहीं करता; क्योंकि ऐसा कोई भी उपपातक्षेत्र नहीं है जहा जाने के लिए तीन से अधिक विग्रह करने पड़ें॥२४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में कही हुई जीवों की भवान्तर प्रापिणी गति और पुद्गलों की देशान्तर प्रापिणी गति क्या सीधे जाकर विरत हो जाती है अथवा विग्रह करके भी पुनः उत्पन्न होती है ? ऐसी आशंका होने पर पुद्गलों के लिए कोई नियम नहीं है; सिद्धिगमन करने वाले जीवों की गति नियम से अविग्रहा-सरल ही होती है। सिद्धों से भिन्न जो संसारी जीव हैं, उनकी गति सविग्रहा और अविग्रहा दोनों प्रकार की होती है । इस आशय को प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं जीवों की गति दो प्रकार की है सविग्रह और अविग्रह । सामान्यतया जीव की दो प्रकार की गति होती है-विग्रह अर्थात् वक्रता वाली और अबिग्रह अर्थात् सीधी-सरल । इसमें जो अविग्रहगति है वह नियम से एक समय बाली ही होती है। ऐसी गति मोक्षगामी जीव की होती है। विग्रहवाली गति एक समय की, दो समय की या तीन समय की होती है । जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट तीन समय की समहानी चाहिए। अतएव एकेन्द्रिय आदि दूसरी जातियों में શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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