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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. २४ जीबस्य विग्रहाविग्रहगतेनिरूपणम् ८९ तावत्प्रमाणां श्रेणिमविजहत् चतुभ्यो विग्रहेभ्यः प्राक् विग्रहया गत्या उत्पद्यमान एकसमयविग्रहया-द्विसमयविग्रहया, त्रिसमयविग्रहया वा गत्या-उत्पद्यते । परन्तु अन्तर्गत्याऽवश्यमेव त्रिवक्रगत्या भवितव्यम्, इत्येवं नियमो नाऽभ्युपेतव्यः, अपितु-येषां जीवानां विग्रहा गतिः । तेषामुपपातक्षेत्रवशाद् वक्रागतिरुत्कृष्टेन विग्रहत्रययुक्ता भवति, । इत्येताश्चतस्रो गतयोऽविग्रहा-एकविग्रहा द्विविग्रहा–त्रिविग्रहा च चतुःसमयपरा भवन्ति । तत्र-एकसमयाऽविग्रहागतिर्भवति, विग्रहागतिस्त्रिविधा भवति । एकसमया-द्विसमया-त्रिसमया च, । ततः परं न संभवति तस्यास्तथास्वभावात् प्रतिघाताभावात्, विग्रहनिमित्ताभावाच्च । तथा चयस्य जीवस्योपपातक्षेत्रसमश्रेण्यां व्यवस्थितं वर्तते, स जीव ऋज्वायतां श्रेणिमनुत्पत्योत्पद्यते । तत्र-एकेन समयेन वक्रगतिमकुर्वन् समुत्पद्यते, यदा पुनः कदाचित् तदेवोपपातक्षेत्रं विश्रेणिस्थं भवति, तदा एकसमया, द्विसमया त्रिसमया चेति तिस्रो विग्रहगतयो भवन्तीति भावः । अत्र-विग्रहशब्दो विरामार्थको गृह्यते न तु-कुटिलार्थक इत्यवधेयम् । तथाहि-एकसमयेन वा गतेरवच्छेदेन विरामेण-उन्पद्यते, द्विसमयेन वा गतेरवच्छेदेन-विरामेण, त्रिसमयेन वा गतेरवच्छेदेन - विरामेणोत्पद्यते इति फलितम् । ___ कभी वक्रगति और कभी सरलगति होने का कारण उपपात क्षेत्र की अनुकूलता और प्रतिकूलता है । जिस क्षेत्र में जीव जन्म लेने वाला है, उस क्षेत्र की अनुकूलता होने से, तिर्छ, ऊपर या नीचे, दिशाओं में अथवा विदिशाओं में मरता हुआ जितनी आकाशश्रेणी में अवगाढ होती है, उसी प्रमाण वाली श्रेणी का परित्याग न करता हुआ चार विग्रह से पहले, विग्रहगति से उत्पन्न होता हुआ एक विग्रह वाली, दो विग्रह वाली या तीन विग्रह वाली गति से उत्पन्न होती है । परन्तु अन्तर्गति अवश्य ही तीन विग्रह वाली होती है, ऐसा नियम नहीं स्वीकार करना चाहिए, किन्तु जिन जीवों की गति विग्रहवाली होती है, उपपात क्षेत्र की वजह से उनकी विग्रहवाली गति उत्कृष्ट तीन विग्रहवाली होती है। इस प्रकार विग्रह की दृष्टि से चार गतियाँ हैं एक विग्रहवाली, दो विग्रहवाली, तीनविग्रह वाली जो चार समय की होती है । इनमें विग्रहरहित गति एकसमय की होती है और विग्रह वाली गति तीन प्रकार की है एकसमय की, दो समय की और तीन समय की। इससे अधिक नहीं होती, क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है, प्रतिघात का अभाव है और विग्रह के निमित्त का अभाव है । जिस जीव का उपपातक्षेत्र समश्रेणी में रहा हुआ होता है वह जीव ऋजुश्रेणी से जाकर उत्पन्न हो जाता है। वक्रगति नहीं करने वाला जीव एक ही समय में उत्पन्न हो जाता है अर्थात् अपने उपपातक्षेत्र तक पहुँच जाता है। किन्तु उसका उपपातक्षेत्र यदि विश्रेणी में होता है तब एकसमय दो समय और तीन समय वाली तीन विग्रह गतियाँ होती हैं। १२ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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