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________________ तत्त्वार्थसूत्रे अङ्गबाह्यम्-अङ्गान्तरगतञ्च । तत्राऽङ्गबाह्यमनेकविघं बोध्यम्, आवश्यकादिभेदात् । अङ्गान्तरगतञ्च द्वादशविघम् आचाराङ्गादिद्वादशभेदात् । तच्च-मनोऽनिन्द्रियं व्यपदिश्यते तस्य रूपादिग्रहणादावस्वतन्त्रत्वात् । अपूर्णत्वात्, इन्द्रियकार्याकरणत्वाच्च । तच्च मनः-चक्षुवद्, अप्राप्यकारिवर्तते जलाऽनलपरिचिन्तनकालेऽनुग्रहोपघातशून्यत्वात् । तद् मनो द्विविधम् द्रव्य-भावभेदात् । तत्र द्रव्यमनः स्वशरीरषरिमाणम् , आत्मा च भावमनः सोऽपि~~त्वक्पर्यन्तदेशव्यापी भवति द्रव्यमनः समवलम्बन द्वारेण यदिन्द्रियपरिणामं भावमनो मनुते तस्य व्यापारानुविधानात्। ____ तस्मादेवं रूपस्याऽनिन्द्रियस्य मनसः श्रोत्रप्रणालिकया गृहीतशब्दवाच्यविचारशीलस्य श्रुतज्ञानमर्थो विषयो बोध्यः । तच्च प्रयोगविशेषसंस्कृतं श्रुतं वर्ण-पद-वाक्य-प्रमाणाध्यपनादि भेदं मनो विना न करणान्तरं परिच्छेत्तुं समर्थ स्यात् । तथा चाऽऽत्मपरिणतिविशेषरूपं श्रुतज्ञानमेवाऽनिन्द्रियस्य विषयः, नतु-शब्दरूपं श्रुतं मनसो विषयः सम्भवति ॥ शब्दात्मकस्य श्रुतस्य तु-प्रतिधाताभिभवयुक्तत्वात्-मूर्तित्वात्-श्रोत्रग्राह्यत्वमेव, न तु मनोग्राह्यत्वमिति भावः ॥ एवञ्च-मनस्तावन्नेन्द्रियं सम्भवति तस्मिन् प्रागुक्तेन्द्रियलक्षणानुपपत्तेः । अत एव-नो इन्द्रियं व्यपदिश्यते ॥२२॥ नहीं होता । मन के दो भेद हैं—द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन अपने शरीर के बराबर हैं और भावमन आत्मा ही है । वह भावमन रूप आत्मा त्वचा पर्यन्त देश में व्याप्त रहता है। ___ भावमन द्रव्यमन का अवलम्बन करके भी इन्द्रियों के विषय का मनन करता है, अतएव वह द्रव्यमनन के व्यापार का ही अनुसरण करता है । तात्पर्य यह है कि श्रोत्र की प्रणाली से ग्रहण किये हुए शब्दों के वाच्य का विचार करने वाले मन का विषय श्रुतज्ञान है । वह श्रुतज्ञान प्रयोग विशेष और संस्कारज्ञान से उत्पन्न होता है, वर्ण, पद, वाक्य, प्रकरण अध्येना आदि के ज्ञानरूप है । उसे मनके अतिरिक्त अन्य कोई इन्द्रिय ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । अतएव मन को अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए ॥२२॥ तत्त्वार्थ नियुक्ति - पूर्वसूत्र में स्पर्शन आदि इन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया हैं । अब मन का निरूपण करके उसके विषय का प्ररूपण करते हैं--मन नोइन्द्रिय कहलाता है। उसका विषय श्रुत है। श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने द्रव्यश्रुत का अनुसरण करने वाला निज अर्थ से उपसंगत आत्मपरिणति का प्रमाद तथा तत्त्वार्थ को जानने का स्वरूप वाला मावश्रुतज्ञान कहलाता है । अथवा अर्थावग्रह के समय के पश्चात् मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान बन जाता है। किन्तु सभी इन्द्रियों से होने वाले अर्थावग्रह के पश्चात् नहीं होता है किन्तु मानसिक अर्थविग्रह के अनन्तर ही मतिज्ञान श्रुतज्ञान बनता है । विशेष रूप से तो श्रुतशास्त्र के अनुसार श्रुतज्ञान होता है । मन का विषय वह श्रुतज्ञान दो प्रकार का શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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