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________________ श्रीकल्प सूत्र ॥४८९॥ कल्पमञ्जरी टीका ऽस्ति । अस्य वृक्षस्य भूमिः-उत्पत्तिस्थानं नयसारभवः । भावनाः अनित्याशरणादि द्वादशभावना आलवालम् । अस्य बीजं सम्यक्त्वम् आख्यात कथितम् । जलं-सेचनजलस्थानीयं निश्शङ्कितादिकं निश्शङ्किताधष्टविधसम्यक्त्वाचाररूपं बोध्यम् । नन्दजन्म-पञ्चविशतितमो भवोऽस्य वृक्षस्य अङ्करः। अस्य वृत्तिः स्थानकविंशतिः विंशतिस्थानकानि। एवंरूपो वीरभवः महावीरजन्मरूपो वृक्षोऽस्ति । अस्य वृक्षस्य शाखा; गणधारिणः गणधरा गौतमादयः सन्ति, प्रशाखाः चतुस्सङ्क: चतुर्विधः सङ्घः सन्ति, अस्य दलानिपत्राणि सामाचार्यः साध्वाचाररूपादशआवश्यकादि सामाचार्यश्च सन्ति । अस्य पुष्पावलि त्रिपदी-उत्पादव्ययध्रौव्यरूपा विज्ञेया। त्रिषदीरूपायाः पुष्पावल्याः सुगन्धका सुगन्धो द्वादशाङ्गी विद्यते । फलं चास्य मोक्षः । तस्य रसो निराबाधानन्ताक्षयि अव्याहतम् अनन्तं टोका का अर्थ-सब से पहले वृक्ष की उत्पत्ति के योग्य अच्छी भूमि देखभाल कर क्यारी बनाकर, आम्र आदि रसदार फलों के बीज वहाँ बोये जाते हैं। फिर उन्हें जल से सींचें जातें है । तत्पश्चात् वे बीज अंकुररूप से उगते हैं। उनकी रक्षा के लिए वाड़ लगाई जाती है। इस प्रकार के प्रयत्न से वे बीज पत्तों, शाखाओं प्रशाखाओ (टहनियों) से युक्त वृक्षों के रूप में परिणत होजाते हैं। उनवृक्षों में सरस और सुगंधित पुष्प और फल लगते हैं। इसी प्रकार यह कल्पसूत्र भगवान् के भव-वृक्ष के समान है। इसकी भूमि-उत्पत्तिस्थान नयसार का भव है। अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ इसकी क्यारी हैं। इसका बीज समकित कहा गया है। निःशंकित आदि सम्यक्त्व के आठ आचार इसे सींचने के लिये जल के समान हैं। बीस स्थानक इसकी वाड़ है। ऐसा यह वीर-भव वृक्ष के समान है। गौतम आदि गणधर इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। चतुर्विध संघ प्रशाखाएँ-शाखाओं की शाखाएँ हैं आवश्यक आदि साधु-आचार रूप दस प्रकार की समाचारियाँ इसके पत्ते हैं। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप त्रिपदी इसकी पुष्पावली है। द्वादशांगी इसका सौरभ है। मोक्ष इसका फल है। अन्याबाध, अनन्त असीम और अक्षय मुख इसका रस है। ટીકાને અર્થ-સૌથી પહેલાં વૃક્ષની ઉત્પત્તિને વેગ્ય સારી જમીન જોઈ ને યારી બનાવીને આગ્ર આદિ રસદાર ફળાનાં બીજ ત્યાં વાવવામાં આવે છે. પછી તેને પાણી પાવામાં આવે છે. ત્યારબાદ તે બીજ અંકર રૂપે | ઉગે છે. તેના રક્ષણ માટે વાડ બનાવાય છે. આ પ્રકારના પ્રયાથી તે ખીજ પાન, ડાળિયો, અને પ્રશાખાઓ (ટહનિયે) વાળાં વૃક્ષ રૂપે પરિણમે છે. તે વૃક્ષેને સરસ અને સુગ'ધિદાર ફૂલે અને ફળો આવે છે. એજ પ્રમાણે આ ક૯પસૂત્ર ભગવાનનાં ભવ-વૃક્ષ જેવું છે. તેની ભૂમિ-ઉત્પત્તિ સ્થાન નયસારને ભવ છે. અનિત્ય અશરણ આદિ બાર ભાવનાએ તેની કયારી છે. સામકિત તેનું બીજ કહેવાયું છે. નિ:શકિત આદિ સમ્યક્ત્વના આઠ આચાર તેને સિંચવાનાં જળ જેવાં છે. વીસ સ્થાનક તેની વાત છે. એ આ વીર ભવ વૃક્ષના જેવો છે. उपसंहारः सू०१२१॥ ॥४८९॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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