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________________ श्रीकल्प कल्प सूत्रे मञ्जरी ॥३०२॥ टीका निरञ्जनः, जीन इवापतिहतगतिः, जात्यकनकमिव जातरूपः, आदर्शफलकमिव प्रकटभावः, कर्मइव गुप्तेन्द्रियः, पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः, गगनमिव निरालम्बनः, अनिल इव निरालयः, चन्द्र इव सौम्यलेश्यः, सूर इच दीप्ततेजाः, सागर इव गम्भीरः, विहग इच सर्वतो विषमुक्तः, मन्दर इव अप्रकम्पः, शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः, खड्गिविषाणमिव एकजातः, भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, कुञ्जर इव शौण्डीरः, वृषभ इत्र जातस्थामा, सिंह इच दुर्द्धर्षः, वसुन्धरेव सर्वस्पर्शसहः, सुहुत हुताशन इव तेजसा ज्वलन् वर्षावासबर्जुमष्टासु ग्रेष्म हेमन्तिकेषु मासेषु ग्रामे २ एकरात्रं नगरे २ पञ्चरात्रं वासीचन्दनकल्पः समलोष्टकाश्चनः समसुखदुःखः इव लोकपरलोकाप्रतिबद्धः अप्रतिज्ञः संसार पार गामी कर्मनिर्यातनार्थाय अभ्युत्थितो विहरति, नास्ति खलु तस्य भगवतःकुत्रचित प्रतिबन्धः। कांसे के पात्र के समान स्नेह-वर्जित, शंख के समान निरंजन, जीव के समान अव्याहत गति वाले, उत्तम स्वर्ण के समान देदीप्यमान, दर्पण के समान तच्चों को प्रकाशित करने वाले, कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय, कमल-पत्र के समान उपलेप-विहीन, आकाश के समान, निरवलम्बन, पवन के समान आलयविहीन, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्या वाले, सूर्य के समान देदीप्यमान तेज से युक्त, सागर की तरह गंभीर, पक्षी के समान सर्वतः विषमुक्त, सुमेरु की तरह अकम्प, शरद ऋतु के जल के समान स्वच्छ-हृदय, गैडे के सींग के समान अद्वितीयजन्म लेनेवाले, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गज के समान वीर, वृषभ के समान वीर्यवान् , सिंह के समान अजेय, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्टी को सहने वाले, अच्छी तरह होमी हुई अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान, वर्षाकाल के सिवाय ग्रीष्म और हेमन्त के आठ महीनों में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाच रात्रि तक रहनेवाले, वासी-चन्दन के समान, मिट्टी और स्वर्ण को समदृष्टि से देखनेवाले, सुख-दुःख में समान, इहलोक-परलोक में अनासक्त, अप्रतिज्ञ, संसार पारगामी और कर्मों को नष्ट करने के लिए पराक्रमशील होकर विचरते थे। भगवान् को कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं था। નિઃસ્નેહી, નિરંજન, અવ્યાહતગતિ, દેદીપ્યમાન, તત્વપ્રકાશક, ગુપ્તેન્દ્રિય, નિર્લિપ્ત, નિરાવલંબી, નિરાલયી, સૌમ્પલેક્ષા तेजस्वी, जलीर, सप्ता, विप्रभुत, मध, २५२७४ायी, मद्वितीय, अप्रमत्त, वीर, पियवान्, मय, सह જાજ્વલવમાન, વર્ષાકાલ સિવાય ગ્રીષ્મ અને હેમંતના આઠ મહીનામાં ગામમાં એક રાત્રિ અને નગરમાં પાંચ રાત્રિ સુધી રહેવાવાળા, વાસી ચદન સમાન, માટી અને સોનાને સમાન દૃષ્ટિએ જેનાર, સુખદુઃખમાં સમાન, ઈહલેક પરલેકની આસક્તિ રહિત, અપ્રતિજ્ઞ, સંસાર પરિગામી, પરાક્રમશીલ એવા ઉપરોકત ગુણવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, વિચારવા લાગ્યા. પ્રભુને ક્યાંય પણ પ્રતિબંધ હતો નહિ. भगवतो विहार वर्णनम् । ॥९०९८॥ ||३०२॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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