SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥५७५॥ व्यवस्थायुक्त 'इदमेवं करिष्यामि' - इति कार्याकारेण परिणतो विचारः पल्लवित इव मार्थितः स एवेष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इव मनोगत: = मनसि दृढरूपेण स्थितः संकल्पः = इत्थमेव मया कर्त्तव्यम्' इति निश्चितो विचारः फलित इव समुदपद्यत = समुत्पन्नः, यत्प्रभृति यस्माद् दिनादारभ्य खलु अस्माकम् एष दारकः = बालकः कुक्षौ गर्भतया अवक्रान्तः=समुत्पन्नः, तत्प्रभृति = तस्माद्दिनादारभ्य च खलु वयं हिरण्येन वर्षामहे ' यावत् ' पदेन 'सुवर्णेन धनेन धान्येन विभवेन ऐश्वर्येण ऋद्ध्या सिद्धया समृद्ध्या सत्कारेण सम्मानेन पुरस्कारेण बलेन वाहन कोषेण कोष्ठागारेण पुरेण अन्तः पुरेण जनपदेन यशोवादेन कीर्तिवादेन स्तुतिवादेन च विपुल धन कनक - रत्न- मणि- मौक्तिक- शङ्ख- शिलाप्रवाल- रक्तरत्नादिकेन सत्सारस्वापतेयेन' इत्येषां संग्रहः, तथा-प्रीतिसत्कारसमुदयेन च अतीवातीव = अधिकाधिकं वर्षामहे, तत् तस्माद्धेतोः खलु यदा यस्मिन् काले खलु अस्माकम् के समान पुनः पुनः स्मरण रूप विचार, फिर कल्पित अर्थात् पल्लवित के समान "सा करेंगे' इस प्रकार का व्यवस्थायुक्त कार्य - परिणत करने योग्य विचार, प्रार्थित अर्थात् फूले हुए के समान इष्टरूप में स्वीकृत विचार, मनोगत- मन में दृढ़ रूप से स्थित विचार, तथा संकल्प अर्थात् फलित के समान 'एसा ही मुझे करना चाहिये' सा निश्चित विचार उत्पन्न हुआ कि जिस दिन से लेकर हमारा यह बालक उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है, उसी दिन से लेकर हम हिरण्य से यावत् प्रीति और सत्कार की प्राप्ति से खूब खूब बढ़ रहे हैं । यहाँ 'यावत्' शब्द से सुवर्ण, धन, धान्य, विभव, ऐश्वय, ऋद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सत्कार, सम्मान, पुरस्कार, बल, वाहन, कोष, धान्यभंडार, पुर, अन्तःपुर, जनपद, यशोवाद, कीर्त्तिवाद, स्तुतिवाद, विपुल धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, मूंगा, लाल तथा विद्यमान उत्तम द्रव्य का ग्रहण कर लेना સ્મરણરૂપ વિચાર, વળી કલ્પિત એટલે કે પલ્લવિતના જેવા “આમ કરશું' આ પ્રકારનો વ્યવસ્થાપૂર્વક કાર્ય —પરિણત કરવા લાયક વિચાર, પ્રાર્થિત એટલે કે વિકસિતના જેમ ઈષ્ટરૂપમાં સ્વીકૃત વિચાર, મનેાગત-મનમાં દૃઢતાથી રહેલ વિચાર, તથા સંકલ્પ એટલે કે ફલિતની જેમ “એવું જ મારે કરવુ જોઇએ” એવા નિશ્ચિત વિચાર ઉત્પન્ન થયા, કે જે દિવસે અમારે આ બાળક ઉદરમાં ગરૂપે ઉત્પન્ન થયા છે, ત્યારથી શરૂ કરીને અમે હિરણ્યની ચાવત્ પ્રીતિ અને સત્કારની પ્રાપ્તિમાં ખૂબ-ખૂબ વધારો પામી રહ્યાં છીએ. અહીં ચાવત્ શબ્દથી સુવર્ણ, ધન, धान्य, वैभव, सैश्वर्य', ऋद्धि सिद्धि, सत्भार, सम्मान, पुरस्हार, मण, वाहन, अष, धान्यलडार, ५२, अ ंतःपुर, ननयह, यशवाह, डीर्तिवाह, स्तुतिवाह, विधुत धन, सुवर्श, रत्न, मणि, भोती, शंभ, परवाणा, सास, શ્રી કલ્પ સૂત્ર ઃ ૦૧ कल्पमञ्जरी टीका भगवतो 'वर्द्धमान' इतिनामकरणार्थ तन्मातापित्रोः संकल्पः । 1140411
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy