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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥४६३|| 鱼花麵花鱼 छाया - एवं सा त्रिशला क्षत्रियाणी इमान एतद्रपान चतुर्दश महास्वमान् दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा सती हृष्टतुष्टा चित्तानन्दिता प्रीतिमनाः परमसौमनस्यता हर्षवश - विसर्पद्- हृदया धारा-हत-कदम्ब - पुष्पकमिव समुच्छ्वसित - रोमकूपा स्वभावग्रहं करोति, कृत्वा शयनीयादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तया अविलम्बितया राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः मनोऽमाभिः उदाराभिः कल्याणीभिः शिवाभिः धन्याभिः मङ्गल्याभिः सश्रीकाभिः हृदयगमनीयाभिः हृदयप्रहादनीयाभिः मितमधुरमञ्जलाभिः गीर्भिः संलप्य प्रतिबोधयति ॥०२९|| मूल का अर्थ - ' एवं सा तिसला' इत्यादि । इस प्रकार त्रिशला क्षत्रियाणी पूर्वोक्त प्रकार के इन चौदह महास्मों को देखकर जाग उठी। वह हृष्ट और तुष्ट हुई । चित्त में आनन्दित हुई। उसके मनमें प्रीति हुई । मन में उत्कृष्ट शुभ भाव जागृत हुआ । हर्ष से हृदय उछलने लगा । वर्षा की धारा पड़ने से जैसे कदम्ब का फूल विकसित हो जाता है, उसी प्रकार उसके रोमकूप विकसित हो गये । उसने स्वप्न का विचार किया, फिर शय्या से उठी, उठकर त्वरासे रहित, चपलता से रहित, स्खलना से रहित, अवरोध से रहित, राजहंस - सरखी गति से जहाँ सिद्धार्थ क्षत्रिय थे वहां आई, आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरथसाधक, उदार, कल्याणमय, शिवस्वरूप, धन्य, मांगलिक, गुणमय, हृदय को गमने वाले, हृदय को आह्लाद उत्पन्न करने वाले, मित, मधुर और मंजुल वचनों से बोलकर राजा सिद्धार्थ को जगाया || ०२९ ॥ भूणना अर्थ - ' एवं सा तिसला' इत्याहि या प्रमाणे पूर्वोक्त प्रभारनां मे यो महास्वनायो लेने ત્રિશલા ક્ષત્રિયાણી જાગી ઉઠી, તે હં અને સંતોષ પામી, ચિત્તમાં આનતિ થઇ. તેના મનમાં પ્રીતિ થઈ. મનમાં અતિશય શુભ ભાવ જાગૃત થયા. હર્ષથી હૃદય ઉભરાવા લાગ્યું. જેમ વર્ષાની ધારા પડવાથી કદમ્બનું ફૂલ વિકસિત થાય છે એજ પ્રમાણે તેના ામકૂપ વિકસિત થઈ ગયા. તેણે સ્વપ્નને વિચાર કર્યાં. પછી શય્યામાંથી ઉઠી. ઉડીને વરા વિના, ચપલતા વિના, સ્ખલના વિના, અવરોધ વિના રાજહંસ જેવી ગતિથી જ્યાં સિદ્ધાર્થી ક્ષત્રિય हृतां त्यां भावी, भावीने ईष्ट, अन्त, मनोज्ञ, मनोरथ साध, उहार, उदयाशुभय, शिवस्व३५, धन्य, भांगसिङ, ગુણમય, હૃદયને ગમે તેવા, હૃદયમાં આનંદ ઉત્પન્ન કરનારા, મિત, મધુર અને મંજીલ વચનોથી ખેાલીને રાજા सिद्धार्थने गाडया (सू०२८) શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૧ कल्प मञ्जरी टीका स्वप्न निवेदनम् . ॥४६३॥
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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