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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥४२९॥ कल्पमञ्जरी टीका प्रहादनकरं सर्वलोकनेत्रानन्दकारिणम्, दिकान्तामुकुरं-दिग्रूपस्त्रीदर्पणसदृशम्, तथा-धवल-कमल-दलो-पचायिकलं-धवलकमलानि-कुमुदानि तेषां दलानि-पत्राणि उपचिनोतिन्वर्धयति-प्रफुल्लयतीत्येवंशीला कला यस्य तम्कुमुदपत्रमफुल्लिकलावन्तम्, अतएव-कुमुद-कुल-विकाश-शीलं, तथा-निशासुषमाकुशलं-निशाया: रात्रर्या सुषमा परमशोभा तत्र कुशलं-निपुण-रजन्या अतिशयशोभावर्द्धकमित्यर्थः, तथा-विमलो-ज्ज्वल-रजतगिरि-शिखरविमलं विमला निर्मलः, उज्ज्वला=चाकचक्ययुक्तश्च यो रजतगिरिः रजतपर्वतः तस्य यच्छिखरं-शृङ्गं तद्वत् विमलं निर्मलम्, तथा-कलधौतनिर्मल-कलधौतर्धतवर्ण सुवर्ण तद्वनिर्मल स्वच्छ तथा-विगतमल-विशुद्धं तथाशुक्ल-कृष्ण-पक्ष-द्विक-मध्यग-पौर्णमासी-विराजमान-पूर्णकलं-शुक्लकृष्णपक्षद्विकं शुक्लपक्षकृष्णपक्षद्वयं, तन्मध्यगातन्मध्यस्थिता या पौर्णमासी पूर्णिमा तिथिः तत्र विराजमाना-शोभमाना पूर्णा कला-षोडशो भागो यस्य तम्, तथा-दिङमण्डल-स्फारा-न्धकार-परिपान-जातो-दर-ललित-श्यामल-कलई-दिङ्मण्डलं = दिक्समूहस्तस्मिन् यः स्फारो-निविडोऽन्धकार तमः, तत्परिपानेन जातः उत्पन्नः उदरे ललितः सुन्दरः श्यामलः कृष्णः कलङ्क:= लोगों के नेत्रों को आनन्द देने वाला था। दिशारूपी स्त्री के दर्पण के समान था। धवल-कमलों अर्थात् कुमुदों के पत्तों को प्रफुल्लित करने वाली कला से युक्त था। इस कारण वह कुमुदों के कुल (समूह) का विकास करने वाला था। रात्रि की सुषमा में वृद्धि करने वाला अर्थात् परम शोभा में अत्यन्त वृद्धि करने वाला था । चमचमाते हुए चांदी के पर्वत के शिखर के समान निर्मल था। कलधौत अर्थात् श्वेत रंग के सोने के सदृश स्वच्छ था। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष-दोनों के मध्य में स्थित पूर्णिमा के दिन प्रकाशित होनेवाली पूर्णकलाओं से युक्त था। दिशाओं के समूह में व्याप्त गहरे अंधकार को पूरी तरह पी जाने के कारण उदर में उत्पन्न हुए सुन्दर एवं श्याम वर्ण के चिह्न से युक्त था। सागर की अत्यन्त तरल तरंगों को उछालने वाला था। वर्ष, मास, पक्ष, सप्ताह, दिन, रात દેનારો હતે. દિશારૂપી સ્ત્રીનાં દર્પણ જે હતે. ધવલ-કમળો એટલે કે કુમુદેનાં પાનને પ્રફુલિત કરનારી કળાવાળો હતે. તે કારણે તે કુમુદોના સમૂહને વિકસિત કરનારા હતા. રાત્રિની સુષમામાં (પરમ શોભામાં) અત્યન્ત વૃદ્ધિ કરનારે હતે, ચકચકિત ચાંદીના પર્વતના શિખર જે નિર્મળ હતું, કલધૌત એટલે કે વેત રંગનાં સેનાનાં જે સ્વચ્છ હતા. શુકલપક્ષ અને કૃષ્ણપક્ષ એ બન્નેની મધ્યમાં આવતા પૂર્ણિમાના દિવસે પ્રકા શિત થનારી પૂર્ણ કળાએ વાળો હતે. દિશાઓના સમૂહમાં છવાયેલા વાડા અંધકારને પૂર્ણ રીતે પી જવાને કારણે ૪ ઉદરમાં પેદા થયેલાં સુંદર શ્યામ રંગનાં ચિહવાળો હતે. સાગરના અત્યન્ત તરલ તરંગને ઉછાળનારે હતે. चन्द्रस्वामवर्णनम्. ॥४२९॥ શ્રી કલ્પ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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