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________________ श्रीकल्प कल्प मञ्जरी ॥२४७|| टीका महाकपाः। यत्र गतो जीवो निपतितो दुरुधर एव भवति । एकैकेन्द्रियविषयैरागृहीताः कुरङ्गपतङ्गभृङ्गमीनमातङ्गा हन्यन्ते । यः पुनर्जीवः पञ्चेन्द्रियाणां विषयैराग्रहीतः, स चेत् हन्येत, तत्र किमाश्चर्यम् ! मधुरवंशीरवमाकर्ण्य मृगः श्रोत्रेन्द्रियविषयाकृष्टो वागरिकस्य वागुरायां निपतितो वध्यते ॥१॥ चक्षुरिन्द्रियविषयाकृष्टः पतङ्गो नृत्यन् दीपशिखायां भस्मीभवति ॥२॥ घ्राणेन्द्रियविषयाकृष्टो भृङ्गः पद्मपरागरसमास्वादयन् सूर्येऽस्तमिते कमले संकुचिते बद्धो भवति, प्रभाते च करिणा कमलेन सह स कवलीक्रियते ॥३॥ जिह्वेन्द्रियविषयाकृष्टो मीनो बडिशग्रथितमांसं गिरन् हन्यते ॥४॥ वने स्वच्छन्दं विहरमाणः प्रचण्डपराक्रमोऽपि करी स्पर्शेन्द्रियविषयाकृष्टतया कृत्रिमकरेणुं स्पृशन् हस्तिपालैबध्या निशिताङ्कशप्रहारेण पराधीनः क्रियते ॥५॥ इदं । हुए जीव का उद्धार होना कठिन है। एक-एक इन्द्रिय के विषय में आसक्त हिरन, पतंग, भ्रमर, मीन, और हाथी मृत्यु के पात्र होते हैं। ऐसी स्थिति में जो जीव पाँचौ इन्द्रियों के विषयों में आसक्त है, वह प्राणों से हाथ धो बैठे तो आश्चर्य की बात ही क्या है ! देखिए न, बंसी के मधुर स्वर को सुनकर हिरन श्रोत्रेन्द्रिय के विषय से आकर्षित होकर व्याध के जाल में पड़कर मौत का शिकार हो जाता है (१)। चक्षु-इन्द्रिय के विषय से आकृष्ट हुआ। पतंग नाचता हुआ दीपक की शिखा में अपने प्राण दे देता है (२)। नासिका-इन्द्रिय के विषय से आकृष्ट हुआ भ्रमर कमल के पराग-रस का आस्वादन करता हुआ, मूर्य के अस्त होने से कमल के सिकुड़ जाने पर उसी में बंद हो जाता है। प्रभात होते न होते हाथी उसे कमल के साथ ही निगल जाता है (३) जीभ के वशीभूत हुई मछली बडिश-वंशी में लगाये हुए मांस को खाने जाती है कि स्वयं ही खाई जाती है (४)। वनमें स्वच्छन्द विचरण करने वाला और प्रचण्ड पराक्रमसे सम्पन्न भी हाथी, स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होकर महावीरस्य त्रिपृष्ठ नामक: सप्तदशो भवः। મધુર સ્વર સાંભળવાની લાલચમાં હરણ પાધિઓ વડે પકડાય છે (૧). રૂપના મેહમાં તણાઈ જવાથી પતંગીઊ આગમાં ઝંપલાવે છે, અને બળીને ખાખ થાય છે (૨). ગંધ મેળવવાની ઇચ્છાએ, ભમર ફૂલ તરફ આકર્ષાય છે અને પરિણામે સંધ્યાકાએ બીડાઈ જઈ હાથીને કેળી થઈ જાય છે (૩). જીભને વશ થનારી માછલી લોઢાના સળીયા પર, વીંટાળેલા માંસની ગોળીઓને ખાવા જતાં કાંટે મોઢામાં લે છે ને અંતે મરી જાય છે અને માછીમારે તેને લઈ જાય છે (૪). હાથી હાથણીને સ્પર્શ કરવા દોડે છે પણ હાથણીને બદલે ખાડા ઉપર પાટીયા ગઠવી તેના ઉપર રાખેલી લાકડાની કૃત્રિમ હાથણીને અડવા જતાં, સ્વયં પિતાના ભાર વડે લાકડાં હોય ॥२४७॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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