________________
२०
स्थविरावली
अर्थ:तप्त (तपाया हुआ) कनक ( सुवर्ण) तथा चम्पापुष्प, विकसित उत्तमकमलगर्भ (अन्दरके भाग) के समान वर्णवाले, भव्यजनों के हृदयके प्रिय तथा दयारूप गुण के स्वयं धारण करने में औरों को भी धारण कराने में विशारद (निपुण) तथा धीर, भरतक्षेत्र के दक्षिणार्द्ध भागमें प्रधान (श्रेष्ठ), तथा अनेक प्रकारके आचाराङ्ग आदि शास्त्रके स्वाध्याय को अच्छी तरह से जाननेवाले, तथा अनेक पुरुष श्रेष्ठ साधुओं को स्वाध्याय में लगानेवाले, नागिलकुल-नामक वंशको समृद्ध करनेवाले, प्राणियों के कल्याण करनेमें निर्भीक, और भव ( जन्ममरणरूप संसार ) के भयको मिटानेवाले नागार्जुनऋषि के शिष्य श्री भूतदिनाचार्यको वन्दन करता हूं ॥ ४३-४५ ॥
मूलम्
सुमुणियनिच्चानिच्चं, सुमुणियसुत्तत्थधारयं वंदे ।
सब्भावुब्भावणया, तत्थं लोहिच्चणामाणं ॥ ४६॥
छायामुज्ञातनित्यानित्यं, सुज्ञातसूत्रार्थधारकं वन्दे । सद्भावोद्भावनया, तथ्यं लौहित्यनामानम् ॥ ४६ ॥
अर्थःमैं, नित्य और अनित्य पदार्थों को अच्छी तरह से जाननेवाले, सूत्रार्थों को अच्छी तरहसे धारण करनेवाले, तथा सद्भाव ( यथावस्थित विद्यमान पदार्थ ) की उद्भावना (प्रकाशना ) से तथ्य-(सत्य-पदार्थ तत्त्वों को यथार्थ पतिपादन करने के कारण सत्यार्थभाषी ) श्रीलौहित्य नामक आचार्य को वन्दन करता हूं ॥ ४६॥
मूलम्अस्थमहत्थखाणि, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणिं ।
पयईए महुरवाणिं, पयओ पणमामि दूसगणिं ॥ १७ ॥
શ્રી નન્દી સૂત્ર