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स्थविरावली यशवाले उन श्रीस्कन्दिलाचार्य को वन्दन करता हूं, ये श्रीसिंहाचार्य के शिष्य थे ।। ३७॥
मूलम्
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तत्तो हिमवंतमहंत-विक्रमे धिइपरकममणंते । सज्झायमणंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा ॥ ३८॥
छाया-- ततो हिमवन्महाविक्रमान् अनन्तधृतिपराक्रमान् । अनन्तस्वाध्यायधरान् , हिमवतो वन्दे शिरसा ॥ ३८ ॥
अर्थः-- मैं उन ( श्रीस्कन्दिलाचार्य ) के बाद हिमालयपर्वतके समान बहुत क्षेत्रों में विहार करनेवाले अपरिमित धैर्यपराक्रमवाले और अर्थ की दृष्टिसे अपरिमित स्वाध्यायको धारण करनेवाले श्री हिमवदाचार्य का शिर (मस्तक) से वन्दन करता हूं। ये श्री स्कन्दिलाचार्य के शिष्य थे ॥ ३८॥
मूलम् कालियसुयअणुओगस्स, धारए धारए य पुव्वाणं । हिमवंतखमासमणे, वंदे णागज्जुणायरिए ॥ ३९ ॥
___ छाया-- कालिकश्रुतानुयोगस्य, धारकान धारकांश्च पूर्वाणाम् । हिमवत्क्षमाश्रमणान् , वन्दे नागार्जुनाचार्यान् ॥ ३९ ॥
अर्थःमैं कालिकश्रुतके अनुयोग ( व्याख्या ) के धारण करनेवाले और उत्पात आदि पूर्वो के धारक श्री हिमवत् नामके क्षमाश्रमण और श्रीनागार्जुनाचार्य को वन्दन करता हूं, यहां श्री हिमवदाचार्य का वन्दन दुहराया गया है, श्री हिमवदाचार्य के शिष्यश्री नागार्जुनाचार्य हुए ॥ ३९ ॥
શ્રી નન્દી સૂત્ર