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________________ ज्ञानचन्द्रिका टीका-सम्यक्श्रुतमेदाः चेत् , उच्यते-शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिभिः कैश्चिदनादिसिद्धा मुक्ता अर्हत्वेन स्वीक्रियन्ते । उक्तश्च तैः "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम्" ॥१॥ इत्यादि । तेषामिह ग्रहणं नास्तीति बोधयितुं भगवद्भिरिति विशेषणम्। शंका-सूत्र में जब “अर्हद्भिः" ऐसा पद सूत्रकार ने रखा है तब इस एक पद से ही भगवद्रूप अर्थ का बोध हो जाता है तो फिर " भगवद्भिः" इस विशेषण का स्वतन्त्ररूप से सूत्र में ग्रहण क्यों किया गया है। उत्तर-कितनेक ऐसे भी प्राणी हैं जो शुद्धद्रव्यास्तिकनय की मान्यता को लेकर ऐसा कहते हैं कि मुक्त जीव अनादि काल से सिद्ध हैं और वे अहंत पद वाच्य माने गये हैं। जैसे "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्यचैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम्"॥१॥ अप्रतिघ-अनंत-ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य एवं धर्म ये चार बातें जगपति प्रभु में स्वाभाविकरूप से सिद्ध हैं सो ऐसे अनादिसिद्ध परमात्मा का यहां " भगवंतेहिं" पद से ग्रहण नहीं हुआ है, इस बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने सूत्र में “भगवंतेहिं" यह पद रखा है। श-सूभने “ अर्हद्भिः" मे ५४ सूत्रधारे भूयु छे, तो मे मे ५४थी मागव६३५ मथनी माघ गय छे. तो ५छी "भगवद्भिः" । વિશેષણને સ્વતંત્રરૂપે સૂત્રમાં કેમ ગ્રહણ કર્યું છે? ઉત્તર--કેટલાક એવાં પ્રાણીઓ છે જે શુદ્ધ દ્રવ્યાસ્તિક નયની માન્યતાને લીધે એવું કહે છે કે મુક્તજીવ આનાદિ કાળથી સિદ્ધ છે અને તેમને અહંત पवारय मान्य छे. म "ज्ञानमप्रतिघं, यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः॥ ऐश्वयं चैव, धर्मश्च सह सिद्धं चतुष्टयम् " ॥१॥ અપ્રતિઘ-અનંત-જ્ઞાન, વૈરાગ્ય, ઐશ્વર્ય અને ધર્મ એ ચાર વાત જગત્પતિ પ્રભુમાં સ્વાભાવિક રીતે સિદ્ધ છે, તે એવા અનાદિ સિદ્ધ પરમાત્માનું महा “ भगवतेहिं " ५४थी घड थयुनथी, मे पातने प्रगट ४२१॥ भाटे सूत्रमारे सूत्रमा “भगवतेहि " से ५६ भूयु छ. “ भगवत" ५४थी मेवा ५२ શ્રી નન્દી સૂત્ર
SR No.006373
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size49 MB
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