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________________ ज्ञानचन्द्रिकाटीका - ज्ञानभेदाः । १३१ क्षेत्रवहिर्तिर्वनः स्वयंभूरमणसमुद्रोत्पन्नस्य तिरोऽवधेस्तदेकदेशो विषयः । क्षेत्रपरिमाणं तु योजनापेक्षया सर्वत्रापि जम्बूद्वीपादारभ्य असंख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणमनसेयम् । अपि च- स्वयंभूरमणभिन्ना ये मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्त्तिनो द्वीपसमुद्रास्तत्र समुत्पन्नस्य तिरोऽप्यवधिस्तदेकदेशविषयको भवति ।। गा० ६ ॥ } तदेवं क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिरनियता, कालवृद्धौ तु क्षेत्रवृद्धिर्भवत्येवेति कथितम्, तदानीं द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यस्य वृद्धौ यस्य वृद्धिर्भवति, यस्य च न भवति, तमर्थ बोधयितुमाह मूलम् काले चउह वुड्ढी, कालो भइयव्वु खेत्तवुड्ढीए ॥ वुड्ढी दव्वपज्जव, भइयव्वा खेत्तकाला उ ॥ ७ ॥ छाया - काले चतुर्णा वृद्धि:, कालो भजनीयः क्षेत्रवृद्धये । वृद्धयै द्रव्यपर्याययोः भाज्यौ क्षेत्रकालौ तु ॥ ७ ॥ करनेवाला होगा मनुष्यक्षेत्र से बहिर्वर्ती तिर्यञ्च के कि जो स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न हुआ है उसके अवधिज्ञान का विषय स्वयंभूरण समुद्र का एक देश होगा । क्षेत्र का परिमाण तो योजन की अपेक्षा सर्वत्र जंबूद्वीप से लेकर असंख्यात द्वीपसमुद्रपर्यंत जानना चाहिये । और स्वयंभूरमण समुद्र से भिन्न जितने भी मनुष्यक्षेत्र बहिर्वर्ती द्वीप और समुद्र हैं उनमें उत्पन्न हुए तिर्यश्च का अवधिज्ञान उनके एक देश को विषय करनेवाला होता है | गा० ६ ॥ इस तरह क्षेत्र की वृद्धि में काल की वृद्धि अनियमित है, परन्तु काल की वृद्धि होनेसे क्षेत्रकी वृद्धि नियमित है - वह होती ही है, यह बात यहां प्रकट की गई है । जब यह बात है तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन के बीच में जिसकी वृद्धि होने पर जिसकी वृद्धि होती है, और जिसकी તથા મનુષ્ય ક્ષેત્રની મહારના તીર્થં ચ કે જે સ્વયંભૂમણું સમુદ્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ છે, તેમના અવધિજ્ઞાનના વિષય સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના એક દેશ હશે. ક્ષેત્રનુ પરિમાણુ તા ચેાજનની અપેક્ષાએ સર્વત્ર જમૂદ્રીપથી લઈને અસ ંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્ર સુધી જાણવુ જોઈએ. અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રથી ભિન્ન જેટલાં મનુષ્યક્ષેત્ર બહારનાં દ્વીપ અને સમુદ્ર છે તેએામાં ઉત્પન્ન થયેલ તય ચનું અવધિજ્ઞાન तेभना मेहेशने विषय हरनार होय छे. ॥ गा. ६ ॥ આ રીતે ક્ષેત્રની વૃદ્ધિમાં કાળની વૃદ્ધિ અનિયમિત છે પણ કાળની વૃદ્ધિ થતાં ક્ષેત્રની વૃદ્ધિ નિયમિત છે-તે હોય છે જ. આ વાત અહીં પ્રગટ उरेल छे. જો આ વાત છે તેા દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ, તેમની વચ્ચે જેની વૃદ્ધિ શ્રી નન્દી સૂત્ર
SR No.006373
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size49 MB
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