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________________ ८५९ प्रियदर्शिनी टीका अ०३६ वनस्पतिकायजीवनिरूपणम् पनकोपलक्षितानां सामान्यतो वनस्पतीनां तं बनस्पतिरूपं, कायम् अमुञ्चताम्= अत्यजतां, कायस्थितिः, अनन्तकालम् उत्कृष्टा, जघन्या तु अन्तर्मुहूर्तम् । इह सामान्येन वनस्पतिजीवान् निगोदान् वा आश्रित्यानन्तकालमुच्यते, विशेषविवक्षायां तु प्रत्येक शरीर बोदरवनस्पतीनां बादरनिगोदानां चोत्कृष्टा कायस्थितिः सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणा, जघन्या तु अन्तर्मुहूर्तप्रमाणैव । सूक्ष्मनिगोदानां साधारण जीवोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थिति दोनों ही अन्तर्मुहर्तकी है। इस प्रकार पूर्वोक्त बादर पर्याप्त पृथिवीकाय एवं बादर पर्याप्त अप्काय जीवोंकी तथा आगे कहे जाने वाले बादर पर्याप्त तेजस्काय और वायु. काय जोवोंकी यह उत्कृष्ट स्थिति होती है। तथा जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्तकी होती है । (तं काय अमुचओ पनगाणं-तं कायं अमुंचताम् पनकानाम् ) वनस्पतिरूप शरीरको नहीं छोड़ते हुए ऐसे इन पनकोपलक्षित सामान्य वनस्पति जीवोंकी (कायठिई-कायस्थितिः) कायस्थिति (उक्कोसाउत्कृष्टा) उत्कृष्ट (अणंतकालं-अनन्तकालम् ) अनंतकालकी है तथा (जहन्निया-जघन्या) जघन्य स्थिति (अंतोमुहुत्त-अन्र्मुहूर्तम् ) अन्तर्मुहूर्त की है। यहां जो कायस्थिति उत्कृष्टरूपसे अनंतकाल कही है वह सामान्यसे वनस्पति जीवोंको अथवा निगोद जीवोंको आश्रित करके कही है। विशेषरूपसे यह कायस्थिति प्रत्येक शरीर बादर वनस्पति जीवोंको और बादर निगोद जीवोंकी उत्कृष्टरूपसे सत्तर (७०) कोटी-कोटि सागरो સાધારણ જીવની ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્ય સ્થિતિ બને અંતર્મુહૂર્તની છે. આ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત બાદર પર્યાપ્ત પૃથવીકાય અને બાદર પર્યાપ્ત અપૂકાય જેની આગળ કહેવામાં આવનાર બાદર પ્રર્યાપ્ત તેજસ્કાય તથા વાયુજીની આ Gष्ट स्थिति य छ तथा धन्य स्थिति मतभुतनी होय छे. तं कायं अमुंचओ पनगाणं-तं कायं अमुंचताम् पनकानाम् वनस्पति३५ शरीरने न छ।नार सपा से पनपक्षित सामान्य वनस्पति जवानी कायठिई-कायस्थितिः ४५ स्थिति उक्कोसा-उत्कृष्टा कृष्ट अणंतकालं-अनन्तकालम् मन तनी छे तथा जहनिया-जघन्यका धन्य स्थिति अंतोमुहुत्त-अन्तमुहूर्त मन्तभुइतनी छ. અહીં જે કાયસ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી અનંત કાળની કહી છે તે સામાન્યથી વનસ્પતિ છેને તથા નિગદ અને આશ્રિત કરીને કહેલ છે. વિશેષરૂપથી આ કાયસ્થિતિ પ્રત્યેક શરીર બાદર વનસ્પતિ જેની અમે બાદર નિગોદ જેની ઉત્કૃષ્ટરૂપથી સીત્તેર કરેડ (૭૦) કરડ-સાગરેપમ પ્રમાણ છે તથા જઘન્ય उ० १०७ उत्तराध्ययन सूत्र :४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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