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________________ ८२० उत्तराध्ययनसूत्रे टीका--' लोगेगदेसे' इत्यादि । सर्वे निरवशेषाः, ते=उक्ताः स्त्रीसिद्धादयः, सिद्धाः ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः ज्ञानदर्शनोपयोगवन्तः, संसारपारनिस्तीर्णाः संसारस्य, पोर:-पर्यन्तस्तं निस्तीर्णाःअपुनरागमनस्वरूपेणाऽधिक्येनाऽतिक्रान्ताः सिद्धिं वरगतिम् , गताः सन्तः, लोकैकदेशे लोकाग्रभागे सन्ति। लोकैकदेशे इत्यनेन 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवजिताः" इति कस्यचिदुक्तिः परास्ता । आत्मनां सर्वगतत्वे हि सर्वत्रावस्थानं संभवति, सर्वगतत्व फिर भी सिद्धोंका क्षेत्र और स्वरूप कहते हैं-'लोगेगदेसे' इत्यादि। अन्वयार्थ-(ते सव्वे-ते सर्वे) वे सब स्त्रीपर्याय आदि मनुष्यपर्याय से सिद्ध हुए जीव (नाणदंसणसन्निया-ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः) ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोगसे विशिष्ट है। तथा (संसारपारनित्थिना-संसार पारनिस्तीर्णाः ) संसारके पार पहुँचे हुए हैं। इसीलिये वे (वरगई सिद्धि गया-वरगतिं सिद्धिं गताः) सर्वोत्कृष्ट गति सिद्धिगतिमें प्राप्त हो चुके हैं। सूत्रकार इन विशेषणोंमेंसे "लोकैकदेश' इस विशेषणसे यह समथित करते हैं कि जिनकी ऐसी मान्यता है कि "मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवर्जिताः" आकाशकी तरह मुक्त जीव संतापसे रहित होकर इस समस्त लोकमें ठहरे हुए हैं वह ठीक नहीं है। कारण कि इस कथनसे आत्माका, सर्वत्र अवस्थान प्रतिपादित होता है। आत्माका सर्वत्र अवस्थोन मानने में अनेक दोष आते हैं। कारण कि आत्माको पछी ५ सिद्धाना क्षेत्र भने ५१३५ने ४ छ-"लोगेगदेसे' त्या मन्वयार्थ ते सव्वे-ते सर्वे में सक्षा श्री पर्याय सात मनुष्य पर्यायथी सिद्ध मने 4 नाणदंसणसन्निया-ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः शनाययो भने शन:पयेथी विशिष्ट छ. संसारपारनित्थिन्नो-संसारपारनिस्तीर्णाः तथा संसारथी पार पडायस छे. ॥ ४॥२णे तेस। वरगई सिद्धिं गया-वरगति सिद्धिं गताः સર્વોત્કૃષ્ટ ગતિ સિદ્ધગતિમાં પ્રાપ્ત બની ચૂકેલ છે. સૂત્રકાર આ વિશેષણોમાંથી “लोकैकदेश" मा विशेषथी मे समर्थन ४२ छे , रेमनी सेवा मान्यता छ, “मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवर्जिताः " मशनी भा४ મુકત જીવ સંતાપથી રહિત બનીને આ સમસ્ત લેકમાં રહેલા છે એ ઠીક નથી. કારણ કે, આ કથનથી આત્માનું સર્વત્ર અવસ્થાન પ્રતિપાદિત થાય છે. આત્માનું સર્વત્ર અવસ્થાન માનવામાં અનેક દેષ આવે છે. કારણ કે, उत्तराध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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