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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३६ स्त्रीमोक्षनिरूपणम् ण उपसन्तमोहा' इति । 'नो न उपशान्त मोहा ' इति । काचिदुपशान्तमोहाsपि सम्भवति, तथा दर्शनादिति भावः । उपशान्तमोहाऽपि या खल्वशुद्धाचारा गर्हिता, सा न भवति निर्वाणयोग्येत्यत आह- णो ण सुद्धाचारा " इति । 'नो न शुद्धाचारा ' इति । काचित् शुद्धाचाराऽपि भवति, अतीचारवर्जनेन शुद्धाचारदर्शनादिति भावः । 66 शुद्धाचाराsपि काचिदशुद्धबोन्दि ने निर्वाणाधिकारिणीत्यत आह" णो असुद्धबोंदी " इति । "नो अशुद्धबोन्दि: ' इति । या वज्रर्षभनाराच संहनन रहिता सा अशुद्धबोन्दि:- अशुद्धशरीरा सा न भवति मोक्षयोग्या सर्वैव तथाविधा न भवति इत्यर्थः । काचित् शुद्धशरीराऽपि भवतीति मावः । शुद्धरहती है - अतः ऐसी स्त्रीयां निर्वाणयोग्य नहीं मानी गई हैं सो इस बाधाकी निवृत्तिके लिये सूत्रकार कहते हैं कि ये विवक्षित स्त्रियां अति क्रूरमतिवाली होने पर भी उपशांत मोहवाली हैं । इनकी रतिलालसा - रूप मोहपरिणति उपशान्त हो चुकी है । "नो न शुद्धाचारा" कितनीक स्त्रियां ऐसी भी होती हैं जो उपशांत मोह परिणति विशिष्ट होने पर भी अशुद्ध आचारवाली होती है, परन्तु जिन्हें मुक्ति प्राप्त करनी है वे शुद्ध आचार विशिष्ट नहीं होती हैं यह बात नहीं है 'अपि तु शुद्धाचार विशिष्ट ही होती हैं। क्यों कि ये अपने आचारमें दोषों को नहीं लगने देती हैं तथा लगने पर उनकी शुद्धि करती हैं । "नो अशुद्ध शरीराः" शुद्धाचार विशिष्ट होने पर भी कितनीक स्त्रियां शरीर से अशुद्ध रहा करती हैं अतः वे निर्वाणप्राप्तिकी अधिकारिणी नहीं होती है सो इस शंका समाधान निमित्त सूत्रकार कहते हैं कि यह एकान्त नियम नहीं સ્ત્રીચાને નિર્વાણુ ચેાગ્ય માનવામાં આવેલ નથી. તે આ બધાનાં નિવૃત્તિના માટે સૂત્રકાર કહે છે કે, એ વિવિક્ષિત સ્રીયામાં અતિક્રમતિવાળી હોવા છતાં પણ ઉપશાંત માહવાળી છે એમની રતિલાલસારૂપ મેહરિતિ ઉપશાંત થઇ थुप्रै छे, “नो न शुद्धाचारा" डेंटली स्त्रियेो भेवी पशु होय छे हैं, ने उपशांत માહ પરિણિત હૈાવા છતાં પણ અશુદ્ધ આચારવાળી હોય છે. પરંતુ જેને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવી છે તે શુદ્ધ આચારવાળી નથી હોતી એવી વાત નથી. પરંતુ શુદ્ધ આચારથી વિશિષ્ટ જ હોય છે, કેમ કે એ પેાતાના માચારમાં દોષને લાગવા દેતી નથી તથા લાગવાથી પણ એની શુદ્ધિ કરે છે. “ રો अशुद्ध शरीरा ” शुद्ध मायार विशिष्ट होवा छतां पशु डेंटली खीये। शरीरथी અશુદ્ધ રહ્યા કરે છે. આથી તે નિર્વાણ પ્રાપ્તિની અધિકારિણિ થતી નથી. તે આ શંકાના સમાધાન નિમિત્ત સૂત્રકાર કહે છે કે, આવા એકાન્ત નિયમ उत्तराध्ययन सूत्र : ४ ७९१
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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