SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 725
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३६ कालद्वारमाश्रिय अजीवानां स्थितिवर्णनम् छाया -- असंख्यकालमुत्कृष्टा, एकं समयं जघन्यका । अजीवानां च रूपिणां, स्थितिः एषा व्याख्याता ॥ १४ ॥ टीका- 'असंखकालमुकोसं ' इत्यादि । ७०७ " , रूपिणां रूपयुक्तानां, अजीवानां जीवभिन्नद्रव्याणां पुगलानामित्यर्थः । असंख्यकाळम् उत्कृष्टा - परमा, स्थितिः - एक क्षेत्र विस्थानरूपा तथा एकं समयं जघन्यका = जघन्यास्थितिः इत्येषां - एवं रूपास्थितिर्व्याख्याता=तीर्थकरादिभिः कथिता | 'असंखकालं गं समयं ' इत्युभयत्र स्थितिक्रिययाऽत्यन्तसंयोगे द्वितीया । तेहि गला जघन्यत एकसमयादुत्कृष्टतस्त्वसंख्यकाला दूर्ध्वं ततः क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरमवश्यं गच्छन्तीति भावः ॥ १४ ॥ सादि और सपर्यवसितमें इनकी कितने कालकी स्थिति होती है सो कहते हैं - 'असंख० ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (रूविण - रूपिणाम् ) रूपी - ( अजीवाण - अजीवानाम् ) अजीव द्रव्योंकी अर्थात् पुद्गलोंकी ( असंखकालं उक्कोर्स - असंख्यकालं उत्कृष्टा) असंख्यकालकी उत्कृष्ट स्थिति है। तथा ( जहन्निया - जघन्यका) जघन्य स्थिति (एकं समयं - एक समयम् ) एक समयमात्र है । ( एसावियाहिया - एषा व्याख्याता) इस प्रकार की यह स्थिति इनकी तीर्थकरादिक देवोंने कही है। तात्पर्य- इसका यह है कि ये स्कंध और परमाणु अधिक से अधिक एक क्षेत्रमें असंख्यातकाल तक तथा कमसे कम एक समय तक अवस्थित रहते हैं फिर बादमें अवश्य क्षेत्रान्तर में चले जाते हैं ॥ १४ ॥ આદિ અને સપ વસિતમાં આની કેટલા કાળની સ્થિતિ હાય છે તે हे छे - " असंख " त्याहि । अन्वयार्थ ---रूविण-रूपिणाम् ३५ी अजीवाण - अजीवानाम् अव द्रव्योनी अर्थात् युगबानी असंखकालं उक्कोसं - असंख्यकालं उत्कृष्टा असभ्य अजनी उत्कृष्ट स्थिति छे. तथा जहन्निया - जघन्यका धन्य स्थिति एक्कं समयं एकं समयम् ो समय भात्रनी छे एसा वियाहिया - एषा व्याख्याता था अारनी सेनी या સ્થિતિ તિથ”કરાદિ દેવાએ કહી છે. તાત્પર્ય આનું એ છે કે, સ્ક ંધ અને પરમાણુ અષિકથી અધિક એક ક્ષેત્રમાં અસખ્યાત કાળ સુધી એછામાં ઓછા એક સમય सुधी व्यवस्थित रहे छे, पछी महमां ४३२थी क्षेत्रान्तरभां यास्या लय छे. ॥ १४ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र : ४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy