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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २५ जयघोष-विजयघोषचरित्रम् च पूर्वकर्माणि प्रासंचितकर्माणि क्षपयित्वा क्षीणानि कृत्वा अन्ते अनुत्तरां-सर्वोस्कृष्टां मोक्षरूपामिति यावत् सिद्धि प्राप्तौ । 'इति ब्रवीमि' इत्यस्यार्थः पूर्ववद् बोध्यः॥४५॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगढल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा कलित-ललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशा हूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-" जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर -पूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायाम् "उत्तराध्ययनसूत्रस्य" प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायाम्-' यज्ञीयाख्यं ' नाम पंञ्चविं शतितमममध्ययन-सम्पूर्णम् ॥२५॥ 'खवित्ता पुव्वकम्माई' इत्यादि अन्वयार्थ (जयघोसे विजयघोसे-जयघोपविजयघोषौ ) जयघोषविजयघोष ये दोनों (संजमेण तवेण-संयमेन तपसा) सत्रह प्रकारके संयम एवं बारह प्रकारके तपकी आराधनासे (पुश्वकम्माइं खवित्ता पूर्वकर्माणि क्षपयित्वा) पूर्वभवसंचित कर्मोंको नाश करके (अनुत्तरां सिद्धि पत्ताअनुत्तरां सिद्धि प्राप्तौ ) सर्वोत्कृष्ट मोक्षरूपसिद्धिको प्राप्त हुए । (त्तिबेमिइति ब्रवीमि) हे जम्बू! ऐसा मैं भगवान् महावीरके कथनानुसार कहता हूं।४५॥ ॥ इस प्रकार पचीसवा अध्ययनका हिन्दी अनुवाद संपूर्ण ॥२५॥ " खवित्ता पुव्वकम्माई "-या । भ-क्याथ–से जयघोसे विजयघोसे-सः जयघोषविजयघोषो न्योपविश्या५ मे भन्नेमे संजमेण तवेण-संयमेन तपसा सत्त२ ५४१२ना संयम भने सार प्रना तपनी माराधनाथी पुचकम्माइं खवित्ता-पूर्वकर्माणी क्षपयित्वा पूल सयित भाना नाश ४ी बन अणुत्तर सिद्धिं पत्ता-अनुतरों सिद्धि प्राप्ता सत्कृिष्ट भीक्ष३५ सिद्धिने प्रास . त्ति बेमि-इति ब्रवीमि भ्यू ! मा हुँ भगवान महावीरना थन मानुसार ४९ छु ॥ ४५ ॥ શ્રી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના યજ્ઞીય નામના પચીશમા અધ્યયનને ગુજરાતી ભાષા અનુવાર સંપૂર્ણ છે ૨૫ છે उत्तराध्ययन सूत्र : ४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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